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मेरु मंदर पुराण
का कोई स्थान नहीं है । वहां पर सभी सम्यग्दृष्टि जीव रहते हैं । सम्यग्दृष्टि के ६३ गुण इस प्रकार होते हैं :
१ संवेग, २ निर्वेद, ३ निन्दा, ४ गर्दा, ५ उपशम, ६ भक्ति, ७ अनुकम्पा, ८ वात्सल्य ये आठ गुण, शंका आदि पांच अतिचारो का छूटना रूप ५ गुण, सात भयों का छूटना रूप ७ गुण, तीन शल्यों का छूटना रूप ३ गुण, पचीस दोषों का छूटना रूप २५ गुण, आठ मूल गुण पालन रूप ८ गुण, सात व्यसनों का त्यागना रूप ७ गुण, इस प्रकार ६३ गुण होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इन गुणों को प्राप्त करता है और करना भी अनिवार्य है।
इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि जीव के सम्यग्दर्शन आदि ८ अंग भी होते हैं, जिनके बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता, और फल स्वरूप वह सम्यग्दर्शन जीव को मोक्ष में नहीं पहुँचा सकता। ऐसी स्थिति में उनका संचय करना अनिवार्य है। परन्तु वे पाठों अंग निश्चय और व्यवहार नय के भेद दो प्रकार होते हैं।
१, सरागी जीव और दूसरा वीतरागी जीव । सरागी जीव, व्यवहाररूप आठ अंगों को पालता है और वीतरागी जीव निश्चयरूप से पाठ अंग का पालन करता है ॥२४॥
कुरैयिला कुडिगळार कुळिइयऊर् कोडवळर् । तिरैयिडु मिवदिना लियलविनाय नाडेलिन् निरैमदि नडुवनंद निड्रमीन कुळांगळ पो।
लिरवन दिरके सूळद नाळे पण नाईरंगळे ॥२५॥
अर्थ-वहां पर धन्य धान्यादि सम्पत्ति से परिपूर्ण गृहस्थों के निवास करने वाले ग्राम थे और वे लोग प्रचुर मात्रा में धन्य-धान्य उत्पन्न करके बिना मांगे ही स्वयमेव राजा को कर देने वाले स्वाभाविक गरण के घारी थे। उस देश में दश प्रकार की कलात्रों से रहने वाले थे। इनके बीच में चन्द्रमा के समान परम तेजस्वी धर्म से युक्त शान्त स्वभावी वहाँ के राजा थे । और चन्द्र मंडल में तारागणों के समान वहां की प्रजा भी उत्तम गुणों से युक्त प्रकाशमान थी।
राजाओं के रहने तथा देशों को धेरै हुये नगरों की संख्या ३२००० है । ये सभी नगर चक्रवर्ती के अधीन हैं । और यहां पर सभी लोग चक्रवर्ती की प्राज्ञानुसार चलते हैं।
भावार्थ-वहां की जमीन धन धान्यादि से सर्वथा सुसम्पन्न थी। और सर्वथा सम्पन्न होने के कारण वे सद्गृहस्थ धान्य की मात्रा अधिक उत्पन्न होने के प्रमाणानुसार अपनी इच्छा से स्वयमेव ही राजा को कर देने वाले होते हैं। और वे स्वभाव से ही धार्मिक वृत्ति वाले होते हैं तथा उस देश में सभी १. कलाओं से परिपूर्ण रहते हैं। आकाश में स्थित चन्द्रमा को चारों ओर रहने वाले तारागण जिस प्रकार घेरे रहते हैं उसी प्रकार उस नगर के मध्य में राजा की राजधानी को घेर कर रहने वाली ३२००० नगरों की प्रजा चक्रवर्ती की प्राज्ञा का पालन तथा अनुसरण करती थी ॥२५॥
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