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मेरु मंदर पुराण
[ १६ अन्त में संसार के भोगों से विरक्त होकर तप धारण करके उस तप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त होता है । अतः ऐसी पुण्य भूमि में उत्पन्न होना यह पूर्व जन्म में किया हमा तप और निरितिचार पूर्वक श्रावक व्रत को पालन किया हुआ पुण्य का फल है ।
कपिला मगळिरिल्ले करण इल्लारु मिल्ल । पोपिला वरमुमिल्लं पोद मिल्लारु मिल्लै । तर्क मिल्लारु मिल्ल दानमिल्लार मिल्ने ।
सोर्कन् मै लाद मिल्लं तूयरल्लारु मिल्ल ॥१०॥ अर्थ-गंधमालिनी देश में पतिव्रतारहित स्त्रियां नहीं हैं। दया धर्म रहित पुरुष नहीं हैं । उस देश में अधिक से अधिक धर्माचरण वाले मनुष्य मिलेंगे। ज्ञान तथा स्वाध्याय रहित वहां कोई भी श्रावक नहीं मिल सकता । उस देश में प्रतिदिन आहार, औषधि, शास्त्र अभय इन चार प्रकार के दान देने वाले तथा अपने कर्तव्य को समझने वाले श्रावक मिलेंगे। वहां असत्य बोलने वाले कोई भी स्त्री या पुरुष नहीं मिल सकते । उस देश में शुद्ध परिणामी तथा सद्भावना रखने वाले मनुष्य मिलेंगे ॥१०॥
भावार्थ-प्राचार्य ने इस श्लोक में विदेह क्षेत्र के श्रावक श्राविकाओं का वर्णन किया है। उस गंधमालिनी देश में स्त्रियां पतिव्रता सुधीर, संतोषी पुरुष अधिक धर्म में रुचि रखने वाले, अत्यन्त ज्ञान से युक्त-न्याय तर्क व्याकरण आदि के ज्ञाता तथा चार प्रकार के दान देने वाले श्रावक सदैव मिलेंगे। वहां के मानव प्राणी सदा सत्य वचन का पालन करने वाले होते हैं । सत्य के अतिरिक्त झूठ वचन उनके मुख से कभी भूलकर भी नहीं सुनने में पाते। ऐसे शुद्धभाव सहित धर्मात्मा पुरुष दुर्द्ध र तप करने में रुचि रखने वाले सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित पुरुष सदैव यहां विचरते रहते हैं . जहां पर भक्ति नहीं है वहां पर मोक्ष मार्ग का ख्याल भी नहीं है।
भावार्थ-इस सम्बन्ध में श्री कुन्द कुन्दाचार्य ने रयणसार के गाथा नं० ७७ में इस प्रकार लिखा है
वत्थुसमग्गोमूढो लोहियलहिए फलंजहा पच्छा।
भणणाणो जो विसय परिचतो लहइ तहा चेवा ।।७७।। भावार्थ-समस्त सामग्री और भोगोपभोग साधनों का समागम प्राप्त होने पर लोभी मनुष्य उनका भोग नहीं करता है, बल्कि लोभवश वह पापों का ही संग्रह करता रहता है । ठीक इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव व्रत तपश्चारणादि करके उसके फल से संसार को वृद्धि ही करता है । मिथ्यादृष्टि जीवों का तपश्चरण भी पाप का ही कारण है।
वत्यु समग्गो गाणी सुपत्तदाणी फलं जज्ञ लहइ । गाण समग्गो विसय परिचितो लहइ तहा चेव ॥७॥
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