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मेरु मंदर पुराण
एक हजार आठ कलशनिकरि करै है । तिन कलशनिका मुख एक योजन का, उदर चारि योजन चौड़ा, पाठ योजन ऊंचा, तिन कलश निते निकसी धारा भगवान के वज्रमय शरीर ऊपरि पुष्पनि की वर्षा समान बाधा नाहीं करै है । अर पाछे इन्द्राणि कोमल वस्त्र ते पोंछकर अपना जन्म को कृतार्थ मानती स्वर्गतै ल्याये रत्नमय समस्त प्राभरण वस्त्र पहरावे है। तहां अनेक देव अनेक उत्सव विस्तारे है तिनकूलिखने कोऊ समर्थ नांहीं। मेरु गिरतें पूर्ववत् उत्सव करते जिनेन्द्र कूल्याय माता कू समर्पण कर इन्द्र वहां तांडव नृत्यादिक जो उत्सव करे है तिन समस्त उत्सवनिकू कोऊ असंख्यातकाल पर्यन्त कोटि जिह्वानि करि वर्णन करने कूसमर्थ नाहीं है।
- जिनेन्द्र भगवान जन्मते ही तीथङ्कर प्रकृति के प्रभाव से दस प्रतिशय ज.म के साथ उत्पन्न होते हैं, पसीना रहित शरीर के मल, मूत्र, कफ आदि से रहित और शरीर में दूध के समान रुधिर, समचतुरस्र संस्थान व्रजऋषभनाराच
न व्रजऋषभनाराच संहनन, अद्भुत अप्रमाण रूप, महा सुगंध शरीर, अप्रमाण बल, एक हजार आठ लक्षण, प्रिय हित मधुर वचन, ये समस्त पूर्व जन्म में षोड़श कारण भावना भायी हुई के कारण है। और इन्द्र द्वारा अंग ष्ठ में स्थापना किया हुआ अमृत का पान करते हैं । माता के स्तन में पाया हुआ दूध नहीं पीते हैं । पुनः अपनी अवस्था के समान देवकुमार के साथ क्रीड़ा करते हुने वृद्धि को प्राप्त होते हैं। और स्वर्गलोक तें आया हुअा अाभरण वस्त्र, भोजन आदि मनोवांछित देव द्वारा लाये हुये भोजन से तृप्त होते है और वह देव रात दिन उनकी सेवामें हाज़िर रहते हैं । पृथ्वी लोक का भोजन, वस्त्रादिक, आभरण को अंगीकार नहीं करते हैं। स्वर्ग से आये हुए भोगों को भोगते हैं। पुनः कुमारकाल व्यतीत कर इन्द्र के द्वारा अद्भुत उत्साह करके भक्ति पूर्वक पिता के द्वारा समर्पण कियाहुना राजभोग को भोग कर तत्पश्चात् अवसर पाकर संसार, देह और भोगों से विरक्त होते हुए बारह भावना भाते हुए वंदन श्रवण करते हुए भगवान को सम्बोधन करते हैं। और जिनेन्द्र वैराग्य भाव होते ही चार निकाय इन्द्रादिकनि के देव अपने आसन कम्मायमान होते ही जिनेन्द्र का जन्म अवधि ज्ञान से जानकर बड़े उत्सव के साथ आकर अभिषेक करके देवलोक से लाये हुए वस्त्राभरण भक्ति से अलंकार भगवान को कराते हैं। तत्पश्चात् रत्नमयी पालकी की रचना करके जिनेन्द्र भगवान को विराजमान करते हैं.। अनेक प्रकार के उत्सव करके जयजयकार करते हुए तप करने योग्य वन में ले जाकर उतार देते हैं। वहां आभरण:समस्त त्यागकर-देव अधर नतमस्तक होकर नमस्कार करते हैं। तब भगवान एक शिला पर बैठकर सिद्ध भगवान को नमस्कार करके पर मुटठी केश लोंच करते हैं। उस केश लोंच को जो भगवान ने उसको अत्यन्त भक्ति के साथ · नमस्कार करते हुए रत्नों की पेटी में रख कर उसको क्षीर समुद्र में ले जाकर के क्षेपण करते हैं।
जिनेन्द्र केतेककाल में तप तथा शुक्ल ध्यान के प्रभाव से क्षपक श्रणी में घातिया कर्म का नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त करै हैं । तब ही परहंत पना प्रकट होता है । तद् केवल ज्ञान भूत, भविष्य, वर्तमान त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की अनंतानंत परिणति कर सहित अनुक्रमते एक समय में सब को जान लेता है और देख लेता है । तथा चारों प्रकार के देव ज्ञान कल्याण की पूजा स्तवन कर भगवान के उपदेश के लिये समवसरण रचते हैं । वह समवसरण महान विभूति वाला, पांच हजार धनुष ऊँचा, जिसके बीच हजार पेढी, जिस पर इन्द्र नील मणि मय गोल भूमि बारह योजन प्रमाण समवसरण की रचना है । जह
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