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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे तित्थय० सिया । तं तु० । आहार-आहार अंगो० ओघं ।
८७. थिर० उक्क हिदिबं. देवगदिअट्ठावीसं तिएिणयुगलं वज० णिय. बं० संखेजदिगुणहीणं बं० । सुभ०-जस० सिया० । तं तु० । असुभ-अजस०-तित्थय सिया० संखेज्जगुणहीणं० । एवं सुभ-जस० ।
८८. तित्थय० उक्क हिदिबं. देवगदिअट्ठावीसं णिय० बं०। तं तु० । सामाइ०-छेदो०-परिहार० [ मणपज्जवभंगो ] ।
८६. सुहुमसं० आभिणिवो० उक हिदिबं० चदुरणा० णिय० बं० उक्कस्सा। एवमएणमएणस्स । एवं चदुदं०-पंचंत० । संजदासंजद० परिहारभंगो । असंजदचक्खुदं०-अचक्खुदं० ओघं । प्रोधिदं० अोधिणाणिभंगो। किराणाए णqसगभंगो । कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है। आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष ओघके समान है।
८७. स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तीन युगलोंको छोड़कर देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । शुभ और यश कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ, अयश-कीर्ति और तीर्थकर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्ति इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
८८. तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके जानना चाहिए ।
८६. सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें आमिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरणका नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका आश्रय. लेकर परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । संयतासंयतोंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके समान है। असंयत, चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। अवधिदर्शनी जोवोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जोवोंके समान है। कृष्ण लेश्यामें नपुंसकवेदी जीवोंके समान भङ्ग है।
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