________________
३३०
महादिधाहियारे
समयबं० 1 सेसाणं तिण्णिपद० कस्स० १ अण्ण० । अवत्तव्व० कस्स० ? अण्ण० परियत्तमाणपढमसमयबंध० ।
७०८. णिरएसु धुविगाणं तिण्णिपदा० कस्स० १ अण्ण० । सेसाणं ओघादो साधेदव्वं । वरि सत्तमा तिरिक्खग-तिरिक्खाणु०-णीचा० धोणगिद्धि० भंगो । मणुसग०मणुसाणु० उच्चा० तिष्णिपदा० कस्स० ? अण्ण० । अवत्त० कस्स० ? अण्ण० मिच्छ तादो परिवद पढमसमय सम्मामि० सम्मादिट्ठि० ।
७०६. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिण्णिपदा कस्स० १ अण्ण० । सेसाणं ओघादो साधेदव्वं । एवं पंचिंदियतिरिक्ख ०३ | पंचिदियतिरिक्खअपजत्त० धुविगाणं तिष्णिपदा० कस्स० अण्ण० | सेसाणं ओघं । एवं सव्वअपजत्तगाणं एइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं च ।
७१०. मणुसा० ३ ओघं । णवरि अवत्त० देवो त्तिण भाणिदव्वं ।
७११. देवाणं णिरयोघो याव उवरिमगेवज्जा त्ति । णवरि विसेसो णादव्वो । उवरि पज्जत्तभंगो ।
-
७१२. पंचिंदि०० -तस०२ - पंचमण० - पंचवचि०- कायजोगि ओरालि०-आभि० - सुद०बन्ध करनेवाला अन्यतर जीव अवक्तव्य पदका स्वामी है । शेष कर्मोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । अवक्तव्य पदका स्वामी कौन है । परिवर्तमान प्रथम समय में बन्ध करनेवाला अन्यतर जीव अवक्तव्यपदका स्वामी है ।
•
७०८. नारकियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदोंका 'स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी । शेष प्रकृतियों के यथासम्भव पदोंका स्वामित्व ओघसे साध लेना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग स्त्यानुगृद्धित्रिकके समान है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके तीन पदों का स्वामी कौन
? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी | अवक्तव्यपदका स्वामी कौन है ? मिध्यात्वसे ऊपर चढ़नेवाला प्रथम समयवर्ती सम्यग्मिध्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि अन्यतर जीव अवक्तव्य पदका स्वामी है ।
I
७०९. तिर्यञ्चों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंके पदोंका स्वामित्व ओघ के अनुसार साध लेना चाहिये । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके जानना चाहिये । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पयप्तिकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव उक्त पदोंका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग के समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्तक, एकेन्द्रिय, विकलत्रय और पाँच स्थावरकायिक जीवों के जानना चाहिये ।
७१०. मनुष्यत्रिक्रमें ओोधके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदका स्वामी देव है यह नहीं कहना चाहिये ।
७११. देवोंमें उपरिम ग्रैवेयक तक नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि वहाँ जो विशेष हो उसे जानकर कहना चाहिये । इससे आगे पर्याप्तके समान भङ्ग है ।
७१२. पचेन्द्रियकि, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org