________________
४६५
जीवसमुदाहारे अणियोगद्दारं दुगुणवड्डिदा याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा याव सादस्स असादस्स य उक्कस्सिया हिदि त्ति । उवरि मूलपगदिभंगो।
एवं जीवसमुदाहारे त्ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं उत्तरपगदिहिदिबंधो समत्तो ।
एवं द्विदिबंधो समत्तो।
प्राप्त हुये हैं। इसीप्रकार सौ सागर पृथक्त्वतक दूनी-दूनी वृद्धिको प्राप्त हुये हैं । उससे आगे पल्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाण जाकर दृने हीन हैं। इस प्रकार सातावेदनीय और असातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक दूने-दने हीन होते गये हैं। इससे आगे भङ्ग मूलप्रकृतिवन्धके समान है।
इस प्रकार जीवसमुदाहार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। इस प्रकार उत्तरप्रकतिस्थितिवन्ध समाप्त हा॥ इस प्रकार स्थितिबन्ध समाप्त हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org