Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 496
________________ वड्विबंधे अप्पाबहुअं मूलोघं । चक्खुदंस. तसपज्जतभंगो। ६७४. किण्णलेस्साए देवगदि०४ सव्वत्थो० संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० असंखेज्जगु० । दोवड्डि-हाणी संखेज्जगुणा कादव्वा । अवढि० असंखेज्जगु० । ओरालि. सव्वत्यो० संखेज्जगुणवड्वि-हा. दो वि० । अवत्त० असंगु० । उवरिं धुवभंगो । तित्थय० इत्थिभंगो । णवरि अवत्त० णत्थि । सेसाणं पगदीणं असंजदमंगो। एवं णील-काऊए। णवरि काऊए तित्थय० णिरयभंगो। देवगदिचदुक्कस्स य अवत्त० संखेज्जगु०। ६७५. तेऊए धुविगाणं देवमंगो। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-बारसक०-देवगदिओरालि०-वेउव्वि-वेउवि० अंगो०-देवाणु०-तित्थय० सव्वत्थो० अवत्त० । संखेंजगुणवड्डि-हाणी दो वि० असं०गु० । उवरि धुवर्भगो। सादासाद०-सत्तणोक०-दोगदिदोजादि-छस्संठा० ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-आदाव० [उज्जो०-] तस-थावर०-थिरादिछयुग०-णीचागो०-उच्चा० सव्वत्थो० संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० संखेज्जगु० । सेसपदा धुवभंगो। [ आहादुगं ओघं । ] एवं पम्माए वि । भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूल ओघके समान है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें सपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । ६७४. कृष्णलेश्यावाले जीवोंमें देवगतिचतुष्ककी संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यात- . गुणे हैं । शेष दो वृद्धि और दो हानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे कहने चाहिये। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। औदारिकशरीरकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंक समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पद नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग असंयतोंके समान है। इसीप्रकार नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कापोतलेश्यावाले जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है तथा देवगति चतुष्कके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। ६७५. पीतलेश्यावाले जीवोंमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग देवोंके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, यारह कपाय, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकांगोपांग,देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थंकरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भंग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, दो गति, दो जाति, छह संस्थान, औदारिकांगोपांग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, आतप, उद्योत, त्रस, स्थावर, स्थिर आदि छह युगल, नीचगोत्र और उच्चगोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यात गुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात गुणे हैं । शेष पदोंका भंग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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