Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 503
________________ ४६० महाबँधे द्विदिधाहियारे सोग० ट्ठिदिनं ० विसे० । भय० दुगुं० ट्ठिदिबं० विसे० । सोलसक० ट्ठिदिबं० असंखेजगु० । मिच्छत्त० द्विदिबं० असंखेअगु० । सव्वत्थोवाणि मणुसगदि० द्विदिवं० । तिरिक्खग दि० ट्ठिदिबं० असंखेज्जगु० । सव्वत्थोवाणि पंचिंदि० द्विदिवं । चदुरिंदि ० द्विदिबं० असंखेजगु० । तीइंदि० द्विदिवं ० असंखेजगु० । बीइंदि० ट्ठिदिबं० असंखज्जगु० । एइंदि० विदिबं० असंखेजगु० । संठाणं संघडणं विहायगदी ओघं । सम्वत्थो० तसणामाए द्विदिबंधज्झ० । थावर० ट्ठिदिबं० असंखेज्जगु० । सेसाणं ओघं । एवं मणुस अपज्जत सव्त्र विगलिं दिय-पंचिंदिय-तस अपज्ज० सव्वएइंदि० पंचकायाणं च । ९८६. मणुसेस हेडिल्लियो ओघभंगो । गदिणामाए जादिणामाए च तिरिक्खोघं । वरि वेउब्बिय • असंखेज्जगु० । सेसं तिरिक्खोघं । O ९८७. देवाणं णिरयभंगो । णवरि सव्वत्थोवा० एइंदि० द्विदिबं० । पंचिंदिय० द्विदिबं० विसे० । एवं तस थावराणं । भवणवा० वाणवेंत ० - जोदिसि ० - सोधम्मीसाणेसु सन्वत्थो० पंचिंदिय० ट्ठिदिबं० । एइंदि० ट्ठिदिबं० असंखेज्जगु० । एवं तस - थावराणं । सव्वत्थोवा असंपत्तसेवट्ट० ट्ठिदिबं० । खीलिय० विसे० | सेसाणं देवोघं | सणकुमारस्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे अरति और शोकके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे भय और जुगुप्सा स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे सोलह कषायोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे मिध्यात्वके स्थितिबन्धाध्यसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे तिर्यचगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संख्यातगुणे हैं । पचेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे चतुरिन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे त्रीन्द्रिय जातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे द्वीन्द्रियजातिके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे एकेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। संस्थान, स ंहनन और विहायोगतिका भङ्ग श्रधके समान है । त्रसनामकर्मके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे स्थावरनामकर्म के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियपर्याप्त, अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिये । I ६८६. मनुष्यों में नीचेकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान है । गतिनामकर्म और जातिनामकर्मका भङ्ग सामान्य तिर्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकशरीर के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। शेष भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । 1 ६८७. देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियजाति के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे पचेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार त्रस और स्थावर प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्मैशानकल्पके देवोंमें पञ्चेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे एकेन्द्रिय जातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार त्रस और स्थावर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । सम्प्राप्तस्पाटिकासंहननके स्थितिवन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे कीलकसंहननके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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