Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 501
________________ ४८५ महाबंध द्विदिबंधाहियारे ज्ज० । वामणसंठा ० द्विदिवं असंखेज्जगु० । हुंडसं० द्विदिवं ० असंखज्जगु० । सव्वत्थोवा० आहारसरीरअंगो० ट्ठिदिबं० । ओरालिय० अंगो० ट्ठिदिबं० असंखेज्जगु० । उव्वय० अंगो० ट्ठिदिबं० विसे० । सव्वत्थोवा ० वञ्जरिस० ट्ठिदिबं० । एवं यथा संठाणं तथा संघडणं । यथा गदो तथा आणुपुच्ची । सव्वत्थोवा ० पसत्थवि ० हिदिबं० । अप्पसत्थ० ट्ठिदिबं० असंखजगु० । सव्वत्थोवा ० थावरणामा ए द्विदिवं । तस० डिदिवं विसे० । सव्वत्थोवा • सुदुम-अपजत साधारण- थिर-सुभ-सुस्सर-आदेख - जसगि०उच्चा० द्विदिवं । तप्पडिपक्खाणं द्विदिवं असंखेज्जगु० । पंचंतरा० द्विदिवं० सरिसाणि । एवं ओघभंगो कायजोगि- कोधादि ०४ - अचक्खुदं० भवसि ० - आहारगे ति । ० ८३. रइसु सव्वत्थोवा श्रीण गिद्धि ०३ द्विदिबं० । छदंसणा० विसे० । सादासादा० ओघभंगो। सव्वत्थो० पुरिस० । हस्स रदि० द्विदिवं असंखे । [ इत्थि ० डिदिनं ० असंखजे० । ] स ० द्विदिवं ० असंखेजगु० । अरदि-सोग० विदिबं० विसे० । भय०-दु० द्विदिबं० विसे० । अनंताणुबंधि०४ द्विदिवं ० असंखेज्जगु० । बारसक० द्विदिवं० विसे० | मिच्छत्त० द्विदिवं असंखेज्जगु० । सव्वत्थो० मणुसग० ङ्किदिर्घ० । । स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुण होते हैं । इनसे हुण्डसंस्थान के स्थितियन्वाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। आहारकशरीर आङ्गोपाङ्गके स्थितिवन्ध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे वैकिकिशरीर आङ्गोपाङ्गके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । वज्रऋषभनाराचसंहननके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । ऐसे ही जिसप्रकार संस्थानों की अपेक्षा अल्पबहुत्व कह आये हैं, उसीप्रकार संहननोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिये । तथा जिसप्रकार चारोंगतियों की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है, उसीप्रकार आनुपूर्वियोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिये । प्रशस्तविहायोगति के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे अप्रशस्तविहायोगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । स्थावरनामकर्मके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे त्रसनामकर्मके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म, पर्याप्त, साधारण, स्थिर, शुभ, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यागुणे हैं। पाँच अन्तरायोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सदृश हैं । इसी प्रकार के समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुः दर्शनी, भव्य और आहारक जीवों के जानना चाहिये । ६८३. नारकियों में स्त्यानगृद्धित्रिकके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे RE दर्शनावरण के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। सातावेदनीय और असाता वेदनीयका भंग के समान है । पुरुषवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे हास्य और रतिके स्थितिबन्धाध्यावसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे स्त्रीवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे नपुंसकवेदके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात हैं। इसे रति और शोकके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे भय और जुगुप्सा स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चारके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे बारह कपायोंके स्थितिबन्धाध्यावसानस्थान विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्व के स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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