Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 497
________________ ४८४ महाधे द्विदिबंधाहियारे वरि ओरालि० अंगो० देवगदिभंगो। पंचिंदिय-तस० धुविगाण भंगो | णवरि तिष्णिवेद ० - समचदु० -पसत्थवि ० - सुभग- सुस्सर-आदें ० - उच्चा० थीणगिभिंगो । O ६७६. सुक्काए पंचणा० चदुदंसणा० चदुसंज० - पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त० । असंखेज्जगुणवड्डी संखेज्जगु० । असंखेज्जगुणहाणी संखेज्जगु० | संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० असंखेजगु० | संखेज भागवड्डि-हाणी दो वि० संखेजगु० । उबरिं देवगदिभंगो | पंचदंसणा०-मिच्छ०- बारसक० भय-दुगुं ० -दोगदि-पंचिंदि ० चदुसरीर० समचदु० - दोअंगो०वजरस० वण्ण ०४ - दोआणु० -अगु०४-पसत्थवि ० तस ०४ - सुभग- मुस्सर-आदे० - णिमि० तित्थय० सव्वत्थोवा अवत्त० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि तु० असंखैज्जगु० । उबरिमपदा णाणावरणभंगो । सादावेद० जसगि० उच्चा० ओधिभंगो । आसादवे ० - इत्थिवे०णवुंस० - चदुणोक० - पंचसंठा० - पंच संघ० - अप्पसत्थ० - थिराथिर - सुभासुभ- दूभग-दुस्सरअणादे॰-अजस०-णीचा० आणदभंगो । पुरिसवेद० अधिभंगो। णवरि अवत्त० असादभंग । [ आहारदुगं घं । ] अन्भवसिद्धिय- मिच्छा० मदि० भंगो । ९७७. उवसमसं० पंचणा० चदुदंस० चदु संज ० पुरिस० - उच्चा० पंचंत० सव्वत्थोवा अवन्त । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी संखेज्जगु० | संखेज्जगुणवड्डी • विसे० | सेसपदा आङ्गोपाङ्गका भङ्ग देवगतिके समान है । पञ्चेन्द्रियजाति और त्रस प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के समान है । इतनी विशेषता है कि तीन वेद, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिनिक के समान है । ६७६. शुक्ललेश्यावाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके वक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यातगुणवृद्धि के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणं हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इससे आगेका भङ्ग देवगतिके समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कपाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, दो अङ्गोपाङ्ग, वज्रऋपभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर के अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इससे आगे के पदोंका भंग ज्ञानावरण के समान है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार नोकपाय, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, प्रयशःकीर्ति और नीचगोत्रका भंग आनत कल्पके समान है । पुरुषवेदका भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका भंग असातावेदनीयके समान है । आहारकद्विकका भंग ओघके समान है । अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भंग है । ६७७. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात गुणवृद्धि के बन्धक जीव विशेष अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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