Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 495
________________ ४८२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे असंखेजभागवड्डि-हाणी संखेजगुः । अवढि० असं०गु० । णिहा-पचला-अट्टक०-भय०. दुगुं०-दोगदि-पंचिंदि०-चदुसरीर०-समचदु०-दोअंगो-बजरिस०-वण्ण०४-दोआणु०अगु०४-पसत्थ० तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थय. सव्वत्थोवा अवत्त० । संखेजगुणवड्डि-हाणी दो वि० असंग० । उवरिमपदा णाणावरणभंगो। सादादिवारस० मणजोगिभंगो । देवायु० ओघं । मणुसायु० देवोघं । आहारदुगं ओघं । एवं ओधिदंस०सम्मादि०-खड्ग०-वेदगसम्मा० । णवरि खइगे दोआयु० मणुसि० भंगो। ६७२. मणपज्ज० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पुरिस०-उच्चा०-पंचंत० ओधिभंगो। सेसाणं आभिणिभंगो। णवरि संखेंज कादव्वं । एवं संजद० । ९७३. सामाइ०-छेदो०. पंचणा०-चदुदंसणा-लोभसंज०-उच्चा०-पंचंत० अवत्त० णत्थि । सेसं मणपज्जवभंगो । परिहार० आहारकाय-जोगिभंगो। णवरि आहारदुगं ओघं । सुहुमसंप० अवगदवेदभंगो। णवरि अवत्त० णस्थि । संजदासंजदे धुविगाणं सादादीणं च देवभंगो। णवरि तित्थय० इत्थिभंगो। असंजदे धुविगाणं तिरिक्खोघं । सेसाणं दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। निद्रा, प्रचला, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो बाङ्गोपाङ्ग, वज्रऋषभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो अानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्करके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुण हैं। इनसे आगेके पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। साता आदि बारह प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। देवायुका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग समान्य देवोंके समान है। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो आयुओंका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। १७२. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनवरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग आभिनिबोधिकज्ञानीजीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिये। इसीप्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिये। ९७३. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका प्रवक्तव्य पद नहीं है। शेष भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें आहारककाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकका भङ्ग अोधके समान है। सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पद नहीं है। संयतासंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और साता आदि प्रकृतियोंका भङ्ग देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। असंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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