Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 442
________________ वडिवंधे अंतर ४२६ अवढि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि स० । सेसाणं तिरिक्खअपञ्जत्तभंगो।। ८९२. पंचमण-पंचवचि० पंचणा०अट्ठारस० तिण्णिवड्डि-हा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसमयं। असंखेंज्जगुणवड्डि हाणि० जहण्णु० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । पंचदंस० मिच्छ० बारसक०-भय दुगु०-तेजइगादिणवआहारदुग-तित्थयर० तिग्णिवड्वि-हा०-अवढि० अवत्त० णाणावरणभंगो। सादा०पुरिस०-जस०-उच्चा० तिण्णिवडि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असंखेंज्जगुणवड्डि-हा० जह० उक० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । इत्थि०-णवुसहस्स-रदि-अरदि-सोग-चदुगदि-पंचजादि-ओरालि०-वेउन्वि० छस्संठाण-दोअंगो०-छस्संघ०चदुआणु०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तस-थावरादिणवयुगल-अजस०-णीचा० तिण्णिवड्डि-हा०-अवट्टि. जह० एग०, उक० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं। चदुण्णं आयुगाणं दोपदा० णत्थि अंतरं । एवं ओरालि० वेउवि०-आहार० । णवरि ओरालि. काईसु० विसेसो । परियत्तमाणिगाणं अवत्त० जहण्णु० अंतो० । ८९३. कायजोईसु पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० तिण्णिवड्डि-हा०-अवट्टि. ओघं । असंखज्जगुणवड्वि-हा० जह० उक्क० अंतो०। णवरि वड्डि० जह० एग०। अवत्त० अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल चार समय है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकों के समान है। ८९२. पाँच मनोयोगी और पाँच बचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि अठारह प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर आदि नौ, आहारकहि तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, चारगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, बस और स्थावर आदि नौ युगल, अयशःकीति और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। चार आयुओंके दो पदोंका अन्तर काल नहीं है। इसीप्रकार औदारिक काययोगी, वैक्रियिक काययोगी और आहारककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी जीवोंमें परिवर्तमान प्रकृतियोंके अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। ८६३. काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ओघके समान है। असंख्यातगुणवृद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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