Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 452
________________ वडिबंधे अंतरं ४३६ वडि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असंखेजगुणवड्डि-हाणि-अवत्त० जह. अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । सादावे०-जस० णाणावरणभंगो। णवरि अवत्त० जह• उक्क० अंतो०। णिद्दा-पचला-भय-दुगुं०-देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा० क०-समचदु०-वेउव्वि०अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४ - सुभगसुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थय० तिण्णिवाड्ढि०-हाणि-अवढि०-जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । असादा०-चदुणोक०-थिराथिरसुभासुभ-अजस तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । देवायु मणुसिभंगो । एवं संजदा० । ६०४. सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंस०-लोभसंज०-उच्चा०-पंचंत० तिण्णिवड्डिहा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असंखेंजगुणवड्डि हा० जह० उक्क० अंतो० । अवट्ठि. जह० एग०, उक्क० बेसम०। णिद्दा-पचला तिण्णिसंज०-पुरिस०-भय-दुगुं०-देवगदिपंचिंदि०-वेउवि तेजा०-क०-समचदु० वेउवि० अंगो०-वण्ण०४-देवाणु ०-अगु०४ पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थय० तिण्णिवडि-हाणि० जह० एग०, उक० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । णवरि तिण्णिसंज-पुरिस० उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । सातावेदनीय और यशःकीर्तिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, देवगति, पश्चैन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्करकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहर्त है। प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । असातावेदनीय, चार नोकपाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःकीर्तिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूर्त है। प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। देवायुका भङ्ग मनुष्य नियोंके समान है । इसीप्रकार संयत जीवों के जानना चाहिये । ६०४. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र, और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहूर्त है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। निद्रा, प्रचला, तीन संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरासंस्थान, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, बस चतुष्वः, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण और तीर्थङ्करकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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