Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 450
________________ ४३७ बंधे अंतरं जह० एग०, उक्क० तिणिपलिदो० देसू० । बेवड्डि-हाणी० णाणाव० भंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिष्णि पलिदो० देसू० । चदुआयु - वे उव्त्रियछ० - मणुसगदिदुग- उच्चा० ओघं ।' तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु० असंखैज्जभागवड्ढि - हाणि - अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० ऍक्कत्तीस सा० सादि० । बेवड्डि-हाणी अवत्त० ओघं । चदुजादि - आदाव - थावरादि०४ णव सगभंगो । पंचिंदि० - पर० उस्सा ० -तस०४ णवंसगभंगो । ओरालि०ओरालि०अंगो० ऍकबड्डि-हाणि-अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० तिष्णि पलिदो० दे० । सेसं ओघं । समचदु० - [ पसत्थ० - ] सुभग- सुस्सर-आ० अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिष्णिपलिदो० दे० | सेसं सादभंगो । उज्जो० ऍक्वड्डि-हाणि-अवडि० जह० एग०, उक्क० ऍक्कत्तीस सा० सादि० । बेवड्डि-हाणी० ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क ० ऍक्कत्तीसं सा० सादि? | णीचा० ऍक्कवड्डि-हाणि अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० तिष्णि पलिदो० सू० । बेवड्डि-हाणि अवत्त० ओघं । विभंगे भुजगारभंगो । ९०२. आभि० - सुद० ओधि० पंचणा० चदुदंस ० चदुसंज० - पुरिस०[० उच्चा० पंचंत० तिण्णवड्डि- हाणि अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असंखेजगुणबड्डी जह० एग०, और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । दो वृद्धि और दो हानियों का भङ्ग ज्ञानावरण के समान हैं । अवक्तव्य बन्धका जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघके समान है । तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्य बन्धका अन्तर ओघ के समान है । चार जाति आतप और स्थावर आदि चारका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छवास और स चतुष्कका भङ्ग नपुंसकत्रेदके समान है । औदारिकशरीर और औदारिक आङ्गोपाङ्गकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ तीन पल्य है । शेष भङ्ग श्रोघके समान है । समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और अदेयके वक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य हैं । शेष भङ्ग सातावेदनीयके समान है । उद्योतकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ओघ के समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । नीचगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग ओघ के समान है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगार बन्धके समान है। ६०२. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । श्रसंख्यातगुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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