Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 449
________________ महाधे द्विदिबंधाहियारे ८६६. अवगदवे० सव्वपगदीणं वड्डि-हाणी० जह० उक्क० अंतो० । अवट्ठि ० जह० उक्क० अंतो० ० । अवत्त ० णत्थि अंतरं । एवं सुहुमसंपराइ० । णवरि अवडि० जह० उक्क० एग० । अवत्त० णत्थि अंतरं । एग०, ० ९००. कोघे पंचणाणावरणादिअट्ठारसण्णं तिण्णिवड्डि-हाणि ०-असंखेज्जगुणवड्डी जह० एग०, उक्क अंतो० । असंखेज्जगुणहाणी' जह० 'उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ तिण्णिवड्डि-हाणि० अवट्टि • णाणावरणभंगो । अवत्त० णत्थि अंतरं । चदुआयु - आहारदुगं मणजीगिभंगो | साणं तिण्णिव हाणि अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । एसिं असंखेज्जगुणवड्डि-हाणि-अवट्ठि ० तेसिं० णाणावरणभंगो | एवं माण- माया लोभाणं । वर माणे को संज • अवत्त० भाणिदव्वं । मायाए दो संज० अवत्त० । लोभे चदुसंज० अवत्त० भाणिदव्वं । ४३६ ६०१. मदि० - सुद० धुविगाणं तिरिक्खोघं । सादादिवारस० - इत्थि० - पुरिस ० तिण्णिवड्डि- हाणि-अवडि० ओघं सादभंगो । अवत्त० जह० उक्त० तो ० । पुंस०पंचसंठा०-छस्संघ०-अप्पसत्थ० - दूभग - दुस्सर - अणादें• असंखेज भागवड्डि-हाणि अवट्ठि ० ८६६. अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यबन्धका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अवस्थितबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय हैं । अवक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है । ६००. क्रोधकषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि अठारह प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और असंख्यात गुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यबन्धका अन्तरकाल नहीं है । चार आयु और आहारकद्विकका भंग मनोयोगी जीवोंके समान है । शेष प्रकृतियों की तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यबन्धका अन्तरकाल नहीं है । जिनका असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणदान और अवस्थित बन्ध होता है, उनका ज्ञानावरणके समान भङ्ग है । इसी प्रकार मान, माया और लोभ कषायवाले जीवों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानकषायवाले जीवोंमें क्रोध संज्वलनका अवक्तव्य कहना चाहिये । माया कषायवाले जीवों में दो संज्वलनोंका अवक्तव्य कहना चाहिये और लोभ कषायवाले जीवों में चार संज्वलनोंका अवक्तव्य कहना चाहिये । ६०१. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यखोंके समान है | साता आदि बारह प्रकृतियाँ, स्त्रीवेद और पुरुपवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग श्रोध के अनुसार सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य १ मूलप्रतौ-गुणवद्धिहाणी इति पाठः । २ मूलप्रतौ जह० एग० अवट्टि० इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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