Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 491
________________ महाबँधे द्विदिबंधाहियारे उब्वियअंगो ० - वण्ण ०४ - देवाणु० - अगु०४ - बादर - पज्जत - पत्तेय० - णिमि० सव्वत्थो ० अवत्त० | संखज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० तु० असंखेज्ज० । उवरिमपदा णाणावरणभंगो । सादावे ० - पुरिस० - जसगि० उच्चा० पंचिंदियपज्जत्तभंगो । असादा० छण्णोक० - तिण्णिगदिपंचजादि छस्संठा० - ओरालि ०अंगो० छस्संघ० - तिण्णिआणु० - आदाउज्जो० - दोविहायगदितस - थावर - सुहुम ० - अपज्जत्त० - साधार० - थिरादिपंचयुगल - अजस ० - णीचा० सव्वत्थो० संखज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० संखेज्जगु० । उवरि णिद्दाए भंगो । चदुआयु०आहारदुग - तित्थय० ओघं । वचिजोगि असच्चमोसवचि तसपज्जत्तभंगो । ओरालियमि० तिरिक्खोघं । णवर देवगदिपंचगस्स सव्वत्थो० संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० तु० । संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० तु ० संखेज्जगु० ! असंखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० तु० संखज्जगु० । अवट्टि • संखेज्जगु० । ० ९६५. वेडव्वि० - वेउच्चिय मिस्सका० देवोधं । णवरि वेउव्वियका० तित्थय० णिरयोघं । आहार० - आहार मिस्सका० सव्वट्टभंगो । कम्मइगका० सव्वत्थो० मिच्छत्त० अवत्त० | अवदि० अनंतगु० । सेसाणं परियत्तमाणियाणं पगदीणं सव्वत्थो ० अवत्त० । अवट्टि • असंखेज्जगु० । एवं अणाहारगे० । ० ४७८ जुगुप्सा, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके अवक्तव्यपद बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि, और संख्यातगुणहानिपदके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इससे आगे पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका भङ्ग पञ्च ेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान है । असातावेदनीय, छह नोकषाय, तीन गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, तप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण, स्थिर आदि पाँच युगल, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इससे आगे भङ्ग निद्रा प्रकृतिके समान है । चार आयु, आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग के समान है । वचनयोगी और असत्यमृषा वचनयोगी जीवोंमें सपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्र काययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि देवगतिपञ्चककी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानि के बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। ६६५. वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भन है । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग सामान्य नारकियों के समान है । आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवों में सर्वार्थसिद्धि देवोंके समान भङ्ग है । कार्मणकाययोगी जीवों में मिध्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। शेष परिवर्तमान प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणें हैं । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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