Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 490
________________ वड्डिबंधे अप्पाबहुअं वि तु० असंखेज्जगु० । संखेज्जभागवड्डि-हाणी दो वि० संखेज्जगु० । असंखेज्जभागवड्डिहाणी दो वि तु० संखेज्जगु० । अवढि० असंखेंजगु०। पंचदंसणा०-मिच्छ०-बारस० क०-भय-दु०-तेजइगादिणव पंचिंदियओघो। असादावे०-छण्णोक०-तिण्णिगदि-दोजादिओरालि०-वेउवि०-छस्संठा-दोअंगो०-छस्संघ० तिण्णिआणु०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो०दोविहा०-तस थावर-बादर-पज्जत्त-पत्तेय०-थिरादिपंचयुगल०-अजस०-णीचा०सव्वत्थो. संखेजगुणवड्डि-हाणी दो वि तु० । अवत्त० संज्जगु० । उवरि णाणावरणभंगो। सादावे०-पुरिस०-जसगि०-उच्चा० सव्वत्थो० असंखेज्जगुणवड्डी । हाणी असंखेज्जगु० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि तु० असंखज्जगु० । अबत्त० संखज्जगु० । उवरि णिहाए भंगो। णिरयगदि-तिण्णिजादि-णिरयाणु०-सुहुम-अपज्जत्त-साधारण सव्वत्थोवा संखे. ज्जगुणववि-हाणी । अवत्त० असंखेज्जगु० । उवरि णिदाए भंगो। चदुआयु०-आहारदुगतित्थय० ओघं । पंचिंदियअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो। तसकाइय. पंचिंदि यभंगो । पज्जत्ता पज्जत्तभंगो। अपज्जत्त० अपज्जत्तभंगो। ९६४. पंचमण०-तिण्णिवचिजो० पंचणा अट्ठारस० पंचिंदियपज्जत्तभंगो। चदुदंसणा०--मिच्छ०-बारसक०-भय०-दुगुं०-देवगदि-ओरालि०-वेउव्विय-तेजा०-क० और संख्यात गुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यात भागवद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगणे हैं। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके ओघके समान है। असातावेदनीय, छह नोकषाय, तीन गति, दो जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, परघात, उछ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि पाँच युगल, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रकी संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक व संख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीय, पुरुषवेद, यश:कीर्ति और उच्चगोत्रकी असंख्यात गुणवृद्धिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भङ्ग निद्रा प्रकृतिके समान है। नरकगति, तीन जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी संख्यातगुणवृद्धि, और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भङ्ग निद्रा प्रकृतिके समान है । चार आयु, आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग अोषके समान है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त में पञ्चेन्द्रिय तियश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। त्रसकायिक जीवोंमें पञ्चेन्द्रियोंके समान भङ्ग है । इनके पर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । इनके अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। ६६४. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि अठारह प्रकृतियोंका भङ्ग पश्चन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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