Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 456
________________ बड्डिबंधे अंतरं उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । अवत्त० जह० अट्ठारस साग० सादि०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । सेसाणं भुजगारभंगो। भवसि० ओघं । अब्भवसि मदिभंगो। १०६. वेदगे धुविगाणं सादादिवारस० परिहारभंगो। अट्ठक०-दोआयु०-मणुसगदिपंचग-आहारदुर्ग ओधिभंगो। देवगदि०४ तिण्णिवाड्डि-हाणि-अवढि० ओधिभंगो । अवत्त० जह० पलिदो० सादि०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । तित्थय० तेउभंगो। १०. उवसम० पंचणा०अट्ठारस० चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक० अंतो० । णवरि असंखेंज्जगुणहाणी जह० उक० अंतो० | अवत्त० णत्थि अंतरं। णिद्दा-पचला-भय-दुगुं०-देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा०-०-समचदु०-वेउब्बिय० अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आर्दै-णिमि० तित्थय० णाणावरणभंगो। सादावे०-जस० अवत्त० जह० उक० अंतो० । सेसाणं णाणावरणभंगो। असादा०-अट्ठक०-चदुणोक-आहारदुग-थिरादिपंच सादभंगो। मणुसगदिपंचग० तिण्णिवड्डि-हाणी० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उ० बेसम० । अवत्त० णत्थि अतरं । ९११. सासणे धुविगाणं वेदगभंगो । सेसाणं मणजोगिभंगो । सम्मामि० धुविगाणं अठारह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। शेप भङ्ग भुजगारके समान है। भव्य जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अभव्य जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। १०६. वेदक सम्यदृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और सातावेदनीय आदि बारह प्रकृतियोंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयतोंके समान है। आठ कषाय, दो आयु, मनुष्यगति पश्चक और आहारकद्विकका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। देवगति चतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग पीतलेश्यावाले जीवोंके समान है। ६१०. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि अठारह प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है । निद्रा, प्रचला, भय जुगुप्सा, देवगति, पश्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । सातावेदनीय और यश कीर्ति के अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। आसातावेदनीय, आठ कषाय, चार नोकषाय, आहारकद्विक और स्थिर आदि पाँचका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। मनुष्यगतिपञ्चककी तीन वृद्धि और तीन हानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है।। ६११. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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