Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 467
________________ ४५४ महाबंधे विदिबंधाहियारे धुविगाणं असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवट्ठि• सबलो। सादादिदस० एकवड्डि-हाणिअवढि०-अवत्त० सव्वलो०। इत्थि०-पुरिस०-चदुजादि-पंचसंठा-ओरालि०अंगो० छस्संघ०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तस-बादर-सुभग-दोसर० आदेज-जसगि० ऍकवाड्विहाणि-अवढि०-अवत्त० केवडि खेत्ते ? लोग० संखेंज्ज०। णवुस०-एइंदि०-हुंड०-पर०उस्सा-०थावर-सुहम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तय०-साधार०-भग०-अणादें-अजस० एकववि-हाणि-अवढि० सव्वलो० । अवत्त० लोग० संखज्ज । तिरिक्खायु० दोपदा लोग० संखेज्ज । मणुसायु० दोपदा ओघं । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-णीचा० ऍकवाड्विहाणि-अवढि०-अयत्त० लोग० असंखें । मणुसगइदुग०-उच्चा० ऍक्वाड्डि-हाणि-अवढि०अवत्त० लो० असंखः । एवं बादरवाउ० बादरवाउ० अपज्ज० । णवरि तिरिक्खगइतिगं धुवं कादव्वं । ९३१. बादरपुढवि०-आउ०. तेउ० तेसिं च अपज्ज. धुविगाणं एकवड्डि-हाणिअवढि० सादादिदसणं एकवड्डि हाणि अवट्ठि० अवत्त० सव्वलो० । णवूस०-तिरिक्खग.. एइंदि० हुंड०-तिरिक्खाणु०-पर०-उस्सा०-थावर-सुहुम-पज्जत्तापज्ज० पत्तेय०-साधार० भग० अणादें-अजस०-णीचा० एकवड्डि-हाणि-अवढि० सव्वलो० । अवस० लो. ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। साता आदि दस प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार जाति पाँच संस्थान औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, बस, बादर, सुभग, दो स्वर, आदेय और यश:कीर्तिकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, परघात, उच्छ्रास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्तिकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। तिर्यञ्चायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंका लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। मनुष्यायुके दो पदोंके बन्धक जीवोंका ओघके समान क्षेत्र है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है । मनुष्यगतिद्विक, और उच्चगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार बादर वायुकायिक और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चगति त्रिकको ध्रव करना चाहिये। ३१. बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर अग्निकायिक तथा इनके अपर्याप्तक जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका तथा साता आदि दस प्रकृतियों की एक वृद्धि, एक हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात उच्छास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । अवक्तव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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