Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 443
________________ ४३० महाबंधे द्विदिबंधाहियारे णत्थि अंतरं। थीणगिद्धितिग-मिच्छ०-बारसक० तिण्णिवड्डि-हा० णाणावरणभंगो । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० चत्तारिसम० | णिद्दा-पचला-भय-दु० ओरालि०-तेजइगादिणव असंखेंज्जभागवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । बेवड्डि-हा० जह. एग०, उक्क० अणंतकालं असंखें । अवत्त० णत्थि अंतरं । साद०-पुरिस०-जस० चत्तारिवड्डि-हा०-अवढि णाणावरणभंगो। अवत्त० जह० उक० अंतो। आसाद०-छण्णोकसाय-पंचजादि-छस्संठा-ओरालियंगो०-छस्संघ०-पर-उस्सा० आदाउज्जो०-दोविहा०. तस-थावरादिणवयुगल-अजस० तिण्णिवड्डि-हाणि णाणावरणभंगो । अवत्त० जह० उक० अंतो०। णिरय-देवायुगस्स दोपदा० णत्थि अंतरं । तिरक्खायु० दोपदा० ज० अंतो०, उक्क० बावीसं वाससहस्सा० सादि०।मणुसायु० दो वि पदा ओघं । मणुसग०-मणुसाणु० ओघं । वेउव्वियछक्क-आहारदुग-तित्थयरं तिण्णि-वड्वि-हाणि-अवडि० जह० एग०, उक० अंतो० अवत्त० णत्थि अंतरं । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-णीचा० संखेजभागवड्डिहाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो०) बेवड्डि हाणि-अवत्त० मणुसगदिभंगो। उच्चा० मणुसगदिभंगो। णवरि असंखज्जगुणवड्डि० जह० एग०, उक० अंतो० । असं और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर काल एक समय है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। सत्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और बारह कषायकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर और तैजसशरीरादि नौ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवद्धि, असंख्यातभागहानि और अस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। सातावदनीय, पुरुषवद और यश:कातिको चार वद्धि, चार हानि और अवास ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। असाता वेदनीय, छह नोकषाय, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस और स्थावर आदि नौ युगल और अयशःकीर्तिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । नरकायु और देवायुके दो पदोंका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है। मनुष्यायुके दोनों ही पदोंका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघके समान है। वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत है। दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। उच्चगोत्रका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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