Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 445
________________ ४३२ महापंधे हिदिबंधाहियारे पचला-भय-दुगुं०-तेजइगादिणव० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि णाणावरणभंगो। अवत्त०णत्थि अंतरं । सादा० जसगि० तिण्णि-वड्डि-हा० णाणावरणभंगो। असंखेंजगुणवड्डि-हा.. अवत्त० जह० उक० अंतो० । अवट्टि० जह० एग०, उक्क अंतो० । असादादिदस० पंचिंदियभंगो। अट्ठकसा० बेवड्डि हा०-अवढि० जह० एग०, उक० पुचकोडी देसू० । संखेज्जगुणहाणी० णाणावरणभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक० पलिदोवमसदपुधतं । इत्थि०-णवुस० तिरिक्खग०-एइंदि०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-तिरिक्खाणु०-आदाउज्जो०अप्पसत्थ०-थावर-दूभग-दुस्सर-अणादें णीचा तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्टि• जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक० पणवण्णं पलिदो० देसू० । णिरयायु० दोपदा० जह अंतो०, उक्क० पुवकोडितिभागं देसू० । तिरिक्ख-मणुसायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क पलिदो० सदपुध० । [देवायु०] दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठावण्णं पलिदो० पुनकोडिपुध० । मणुसगदिपंचगं तिण्णिवड्डि-हाणि अवढि० जह० एग०, उक्क० [तिण्णि] पलिदो० देसू । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क. पणवण्णं पलिदो० देसू० । णवरि ओरालियसरीर० पणवण्णं पलिदो० सादि०। वेउव्वियछ० तिण्णिजादि-मुहुम-अपज्ज०साधार० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवणं बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। अवक्तव्य बन्धका जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरसौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौ प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ जानवरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। सातावेदनीय और यश:कीर्तिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। असंख्यातगुणवृद्धि, असं. ख्यातगुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असाता आदि दस प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। आठ कषायोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। संख्यातगुणहानिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ.पल्य पृथक्त्व प्रमाण है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन. तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर. दर्भग, दस्वर. अनादेय और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अबक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। नरकायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्व कोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तरर्मुहूर्त है। और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है। देवायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक अट्ठावन पल्य है । मनुष्यगतिपञ्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एकसमय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीरका साधिक पचपन पल्य है। वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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