Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 446
________________ वडिबंधे अंतरं पलिदो० सादि० । पुरिस०-उच्चा० चतारिवाड्डि-हाणि-अवढि णाणावरणभंगो। अवस० जह० अंतो०, उक० पणवण्णं पलिदो० देसू०' । [पंचिंदि-समच०-पसत्थ०-तस०सुभग० सुस्सर०-आदें] तिण्णिवड्डि-हाणि-अवाहि. 'सादभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवणं पलिदो० देस० । आहारदुगं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह०एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० सगहिदी० । पर०-उस्सा०-बादर-पज्जत-पत्ते. तिण्णिवडिव-हाणि-अवढि० सादभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० सादि० । तित्थय० तिण्णिवड्डि-हा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एस०, उक्क० बेसम । अवत्त० णत्थि अंतरं ।। ___८६७. पुरिस० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० चत्तारिवड्डि-हाणि-अवढि० पंचिंदियपज्जत्तभंगो । णवरि अवढि० जह० एग०, उक्क तिण्णि सम । अवत्त० णत्थि अंतरं। सेसाणं सव्वाणं पंचिंदियपज्जत्तभंगो। यो विसेसो तं भणिस्सामो। पुरिसे अवत्त० जह० अंतो०, उक० बेछावहिसाग० सादि० । णिरयायु. दोपदा० जह०अंतो०, उक्क० पुवकोडितिभागं देस० । देवायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। अवक्तव्य न्धका जघन्य अन्तर अन्तहित है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य है। पुरुषवेद और उच्चगोत्रकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, स, सुभग, सुस्वर और आदेयकी तीनवृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर छ कम पचपन पल्य है। आहारकद्विककी तीनवृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थिति प्रमाण है। परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य है। तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। अवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है। ८६७. पुरुपवेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितबन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। अवक्तव्यवन्धका अन्तर काल नहीं है। शेप सब प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके समान है। जो विशेषता है उसे कहते हैं-पुरुषवेदके अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दोछियासठ सागर है। नरकायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है । देवायुके दो १ मूलप्रतौ देसू० । सेसाणं ओघ । ओरालि.अंगो० तिणि० इति पाठः। २ मूलप्रतौ भवहि. मणुसगदिभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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