Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 440
________________ वडिबंधे अंतरं ४२७ असंखेज्जगुणवड्ढि० जह० एग० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ तिण्णिवड्डिहाणि-अवट्ठि० जह० एग०, उक. बेछावहिसाग० देसू० । अवत्त० णाणावरणभंगो। सादा जस० चतारिवाड्डि-हाणि-अवढि णाणावरणभंगो । अवत्त० जह० उक० अंतो। णिद्दा-पचला-भय० दुगुं०-तेजा०-कम्मइगादिणव० तिण्णिबड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्तव्वं च णाणावरणभंगो। असादादिदस० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सादावेभंगो। अट्ठक० दोवड्डि-दोहाणि अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी देसू ०।संखेज्जगुणवड्डि-हा०अवत्तव्वं० णाणावरणभंगो। इत्थिवे० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क • बेछावट्ठि० देस०। पुरिस०४वड्डि-हाणि-अवढि णाणावरणभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावट्ठि० सादि० दोहि पुव्वकोडीहि । णवूस-पंचसंठा०पंचसंघ०-अप्पसत्य०-दूभग दुस्सर-अणादे तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावट्टि० सादिरे० तिण्णिपलिदो देसू० । तिण्णिआयु० दोपदा० जह• अंतो०, उक्क० सागरो०सदपुध०। मणुसायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसहस्सा० पुवकोडिपुधत्तं । पज्जत्तगे चदुण्णंआयुगाणं दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० सागरो०सदपु० । णिरयगदि-चदुजादि-णिरयाणु०-आदाव-थावरादि०४ तिण्णिवड्डि-हाणि-अबढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पंचासीदिसागरो०जघन्य अन्तर एक समय है । स्त्यानगृद्धि तीन मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठसागर है। अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीय और यश:कीर्तिकी चार वद्धि, चार हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर और कार्मणशरीरादि नौ प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । असाता आदि दस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि. अवस्थित और अवक्तव्यवन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। आठ कषायोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवक्तव्यवन्धकाभंग ज्ञानावरणके समान है। स्त्रीवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यवन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुंहूते है और इन सवका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। पुरुषवेदकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितबन्धका भंग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर दो पूर्वकोटि अधिक दो छयासठ सागर है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुस्वर और अनादेयकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है । तीन आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है । मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागर है। पर्याप्तकोंमें चारों आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। नरकगति, चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप और स्थावर आदि चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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