Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 439
________________ महाबधे द्विदिबंधाहियारे उक० सागरो मादि । पंचिंदि०-ओरालि अंगो-तस० तिष्णिवति हाणि-अवहिः सादभंगो। अवत्त० एइंदियभंगो। तित्थय० धुवभंगो। एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो अंतरं कादन्वं ८८९, एईदिएसु धुवियाणं एकवड्डि-हाणी जह० एग०, उक० अंतो० । अवढि० जह• एग०, उक्क० बेसम० । एवं सव्वएइंदियाणं णादव्वं । णवरि तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु०-णीचा० अवत्त० जह० अंतो०, उक. असंखज्जलोगा। बादरे कम्मद्विदी। पज्जत्ते संचज्जाणि वाससहस्साणि ।. सुहुमे असंखेंज्जा लोगा। मणुसगदिदुग-उच्चागो० एकवाड्डि-हाणि-अवहि० जह० एग०, अवत्त० अह० अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। बादरे कम्महिदी । पज्जत्ते संखेंजाणि वाससहस्साणि । सुहुमे असंखज्जा लोगा । सेसाणं अपज्जत्तमंगो। णवरि दोआयुगं पगदिअंतरं । विगलिंदि० दोआयु० पगदिअंतरं । सेसाणं मणुसअपज्जत्तभंगो। ८६०. पंचिंदिय०२ पंचणा० चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंतरा० बेवड्वि-हाणि-अवढि० जह० एग०. उक० अंतो० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक० पुचकोडिपुधत्तं । असंखज्जगुणवड्डि-हाणि-अप्रत्तव्वं जह० अंतो०, उक० कायहिदी० । णवरि हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिक श्राजोपाङ्ग और त्रसकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्य बन्धका भङ्ग एकेन्द्रियके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रघबन्धवाली प्रकृतियों के समान है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना अन्तर काल जान लेना चाहिये। ८८६. एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, और एक हानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रियोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उस्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। बादर एकेन्द्रियोंमें कर्मस्थिति प्रमाण है। पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है । सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है। मनुष्यगति द्विक और उच्चगोत्रकी एक वृद्धि , एक हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। बादर एकेन्द्रियोंमें कर्मस्थिति प्रमाण है। पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि दो आयुओंका भङ्ग प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। विकलेन्द्रियोंमें दो आयुओंका भङ्ग प्रकृति बन्धके अन्तरके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। ८६०. पञ्चेन्द्रियद्विकमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व प्रमाण है । असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानिऔर अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर 'अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवद्धिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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