Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 437
________________ ४२४ महाबंध ट्ठिदिबंधाहियारे ० एग०, उक्क० तिष्णिपलिदो० देसू० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिष्णिपलिदो० देसू० पुव्वको डिपुध ० | अपच्चक्खाणा ०४ णसंगभंगो। णवरि अवत्तव्यं जह० अंतो०, उक्क ० पुव्वकोsिyati | सादादिवारस बेवड्डि- हाणि अवट्टि - अवत्त० णिरयभंगो । संखेज्जगुणवड्डि- हाणिजह० एग०, उक्क० पुत्रको डिपुध ० । इत्थिवे० तिण्णिवड्डि-हा० अवडि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिण्णिपलिदो० सू० । पुरिसवे० तिण्णिवड्डि-हाणिअट्टि • सादभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिणिपलि० देसू० । णवुंसकवे ० तिण्णिगदि-चदुजादि-ओरालि० पंचसंठा० ओरालि० अंगो० - छस्संघ० तिण्णिआणु ० -आदाउज्जो०- अप्पसत्थवि०-थावरादि०४- दूभग- दुस्सर- अणादें ०-णीचागो० बेवड्डि-हाणि-अवट्ठि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुन्चकोडी० देसू० | संखें गुणवड्डि- हाणि ० णाणावरणभंगो। चदुष्णं आयुगाणं तिरिक्खोघो । देवगदि ० ४ - पंचिंदि० समचदु० पर०उस्सास- पत्थवि०-तस०४ - सुभग सुस्सर आर्दे ० -उच्चा० तिण्णवड्डि- हाणि-अवडि० सादभंगो | अवत्त • सगभंगो । ८८६. पंचिदियतिरिक्खअपजत्तगेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि० जह० एग०, I और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पत्य है । अवक्तव्य बन्धका जन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक कुछकम तीन पल्य है । अप्रत्याख्यानावरण चारका भङ्ग नपुंसक वेदके समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बंधका जघन्य अन्तर अन्तमूहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । साता आदि बारह प्रकृतियों की दो वृद्धि, दो हानि, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग नारकियों के समान है । संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है स्त्रीवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । पुरुषवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । नपुंसकवेद, तीन गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिकङ्गोपांग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यवन्धका जन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर इन सबका कुछ कम एक पूर्वकोटि है । संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका भंग ज्ञानावरणके समान है। चार आयुत्रों का भङ्ग सामान्य तिर्यों के समान है । देवगतिचतुष्क, पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है । ६. पचेन्द्रियतिर्यच अपर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त । अवस्थितबन्धका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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