Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 436
________________ वडिबंधे अंतरं ओरालिअंगो०-छस्संघडण-आदाउज्जो०-अप्पसत्यवि०-दूभग-दुस्सर-अणादें. असंखेन्जभागवड्डि-हाणि-अवट्टिदं जह० एग०,उक० पुचकोडी देसू०। बेवड्डि-हाणी० ओघ । अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० पुनकोडि० । णवरि अपचक्खाणा० अवत्त० उक० अद्धपोग्ग० लपरि० । पुरिस० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० णाणावरणभंगो। अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसू० । तिण्णिआयुगाणं दोपदा जह० अंतो०, उक० पुवको. डितिभागं देसूणं । तिरिक्खायुगस्स दोपदा जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडी० सादि। वेउव्वियछक्क-मणुसगदि-मणुसाणु० उच्चागो० ओघ । पंचिंदि० समचदु०-पर-उस्सा०पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आर्दै० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्टि पुरिसवेदभंगो । अवत्तव्वं जह० अंतो०, उक्क० पुन्वकोडी देसूणं । तिरिक्खग०-चदुजादि-ओरालि०-तिरिक्खाणु०. थावरादि०४-णीचागो० णवुसगभंगो। णवरि तिरिक्खगदि-ओरालि०-तिरिक्खाणु०. णीचा० अवत्तव्वं ओघं। ८८५. पंचिंदि०तिरिक्ख०३ धुविगाणं बेवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक्क० अंतो०। संखेजगुणवडिव-हाणी० जह० एग०, उक० पुरकोडिपुधत्तं । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० तिण्णिसम० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ तिण्णिवाड्डि-हाणि-अवडिदं जह. उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ओघके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इतनी विशेषता है कि अप्रत्याख्यानावरण चारके श्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। पुरुषवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहते है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। तीन आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। तिर्यश्चायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है। वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छास, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर और आदेयकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग पुरुषवेदके समान है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। तिर्यञ्चगति, चार जाति औदारिकशरीर, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार और नीचगोत्रका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ओघके समान है। ५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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