Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 368
________________ गारबंध अंतरागमा ३५५ देसू० | सेसाणं ओरालि० भंगो । णवरि तिण्णिजा० - सुहुम-अपज्जत-साधारण० तिण्णि पदा० जह० एग०, उ० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । ७५१. आभि - सुद० - ओधि० पंचणा० - छंदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस० -भय-दुर्गु० - पंचिंदि ० . तेजा ० क ० - समचदु० - वण्ण ०४ - अगु०४ - पसत्थ० - तस ०४ - सुभग-सुस्सर-आदें ०. णिमि० उच्चा० तिष्णिपदा ओघं । अवत्त ० जह० तो ०, उक्क० छावट्ठि सा० सादि० । अट्ठक० तिणिप० ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । दोआयु० दो पदा० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । मणुसगदिपंचग० तिण्णि पदा० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडि० सादि ० | अवत्त० जह० पलिदो० सादि०, उक० तेत्तीस सा० सादि० । देवगदि०४ तिष्णि प० जह० एग०, उक्क० तेतीसं सा० सादि० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस सा० सादि० । आहारदुगं देवगदिभंगो । तित्थय० चत्तारि पदा ओघं । एवं अधिदंस० - सम्मादि० । ७५२. मणपज्जव० पंचणा० - उदंसणा ० - चदुसंज० - पुरिस०-भय- दुगुं ० – देवगदिपंचिदि० - तिण्णिसरीर० - समचदु० - वेउव्वि० अंगो० - वण्ण०४ - देवाणु ० - अगु०४ - पसत्थ०तस ०४ - सुभग- सुस्सर-आदेज्ज० - णिमि० - तित्थय ० - उच्चा० - पंचत० तिण्णि प० जह० एग०, 1 छह महीना है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग श्रदारिक शरीरके समान है । इतनी विशेषता है कि तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तर काल नहीं है । ७५१. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पचंन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेश, निर्माण और उच्चगोत्रके तीन पदोंका अन्तरकाल ओघ के समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है । आठ कषायके तीन पदोंका अन्तर ओघ के समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। दो आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । मनुष्यगतिपञ्चकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधक तेतीस सागर है । देवगति चतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधक तीस सागर है । आहारकद्विकका भङ्ग देवगतिके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके चार पदोंका भङ्ग ओघके समान है । इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । ७२. मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पचेद्रियजाति, तीन शरीर, समचतुस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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