Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 433
________________ 820 महाबंधे द्विदिबंधाहियारे , • अणतका असं० । तिरिक्खायु० असंखेज्जभागहाणि अवत्तन्वं जह० अंतो०, उक० सागरो० सदपुधत्तं । वेउन्नियछकं तिण्णिवड्डि-हाणि अवडि० जह० एग०, उक्क० अणंतका० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अनंतका० असंखे० परि० । तिरिक्खग ० - तिरिक्खाणुपु० असंखेज्जभागवड्डि-हाणि अवट्ठि ० जह० एग०, उक्क० तेवट्टिसागरो० सर्द ० ' । बेवड हाणि ० णाणावर णभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० असंखज्जा लोगा । मणुसगदि- मणुसाणु ० असंखेज्जभागवड्डि- हाणि-अवट्ठिदं जह० अंतो०, अवत्त० जह० अंतो०, उक० असंखज्जा० । बेवड्डि • बेहाणि० णाणावरणभंगो । चदुजादि आदाव - थावरादि ०४ असंखेज्जभागवड्डि- हाणि-अवट्ठिदं जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं । बेवड्ड-हाणी० णाणावरणभंगो। पंचिंदि० पर० उस्सा० -तस०४ तिण्णिवड्डिहाणि - अवट्टि ० णाणावरणभंगो । अवत्तव्वं जह० अंतो०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं । ओरालि० असंखेज्जभागवड्डि- हाणि-अवट्ठिदं जह० एग०, उक्क० तिष्णिपलिदोवमाणि सादि० | बेवड्ड० - हाणि० णाणावरणभंगो । अवत्तवं जह० अंतो०, उक्क० अतकालमसं० । आहारदुगं तिण्णिवड्डि- हाणि-अवडि० जह० एग०, अवत० जह० अंतो०, ० ち पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । तिर्यवायुकी असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। वैक्रियिक छहकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी की असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर है। दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर इन सबका एक सौ पचासी सागर है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । पचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्रास और त्रस चतुष्कके तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर है । औदारिकशरीर की असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अव स्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । दो वृद्धि और दो हानियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल हैं जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण हैं । आहारकद्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है । अवक्तव्य बन्धका I १ मूलप्रतौ साग० सत्त बे इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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