Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 424
________________ ४११ बंधे सामित्तं णस्स । तेण परं असंखेखभागहाणी । वेउव्वियछ० तिण्णिवड्डि-हाणि अवडि० कस्स० १ अण्ण० सण्णि० असण्णि० । णवरि संखेजगुणवड्डि-हाणि० सण्णिपञ्जत० । अवत्तव्व० सादभंगो । आहारदुग - पर० - उस्सा ० - आदाउज्जो ० - तित्थय० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि ० कस्स० १ अण्ण० । अवत्त० कस्स० १ अण्णद० पढमसमयबंधमा० । ओरालि०-ओरालि ०अंगो० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० णाणावरणभंगो । अवत० कस्स० १ अण्ण० पढमसमयबंध० । एवं ओघभंगो कायजोगि - अचक्खु ० - भवसि ० - आहारग ति । ८६७. रइसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० कस्स० १ अण्ण० । सेसं ओघादो साधेदव्वं । वरि सत्तमाए तिरिक्खग० - तिरिक्खाणु० णीचा० थीणगिभिंगो । मणुस ० - मणुस ाणु० - उच्चा० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्टि० णाणावरणभंगो । अवत्त० कस्स ० १ अण्ण० मिच्छत्तादो परिवद० पढम० असंज० सम्मामि० । ८६८. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि कस्स ० ? अण्ण० । सेसाणं ओघं । एवं पंचिदियतिरिक्ख ०३ | पंचिंदि० तिरिक्खअपजत्त • धुविगाणं तिण्णिवड्डि- हाणि अवडि० कस्स० १ अण्ण० । सेसं ओघं । एवं सव्वअपअ० अणुदिसदेवाणं च । मणुसेसु ० 1 स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रथम समय में आयुकर्मका बन्ध करनेवाला जीव स्वामी है। उसके बाद असंख्यात भागहानि होती है । वैक्रियिक छहकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संज्ञी और असंज्ञी जीव स्वामी है । इतनी विशेषता है कि संख्यात वृद्धि और संख्यातगुणहानिका स्वामी संज्ञी पर्याप्त जीव है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी सातावेदनीयके समान है । श्राहारकद्विक, परघात, उच्छ्रास, आतप, उद्योत और तीर्थंकरकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर प्रथम समय में बन्ध करनेवाला जीव स्वामी है । औदारिकशरीर और औदारिकाङ्गोपाङ्गकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रथम समय में बन्ध करनेवाला जीव स्वामी है । इसी प्रकार के समान काययोगी, अचक्षुचर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ८६७. नारकियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष ओघ के अनुसार साध लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवी में तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है | मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिध्यात्वसे असंयत सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाला प्रथम समयवर्ती नारकी जीव स्वामी है । ८६८. तिर्यञ्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओधके समान है । इसी प्रकार पश्र्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके आनना चाहिए। पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त और अनुदिश देवोंके जानना चाहिए । मनुष्यों में प्रोघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य बन्धका स्वामी प्रथम समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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