Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 430
________________ कालो ४१७ कालो ८७६. कालानुगमेण दुवि० ओघे० आदे० । ओषेण खवगपगदीणं 'चचारिवड्डितिण्णिहाणिबंध ० केवचि ० १ जह० एग०, उक्क० बेसमयं । असंर्खेज्जगुण * हाणि - अवत्तव्वं केव ० १ एग० | अवदि० जह० एग०, उक्क ० तो ० । चदुष्णं आयुगाणं अवत्तव्वं एग० । असंर्खेज्जभागहाणी जहण्णुकस्सेण अंतो० । सेसाणं तिण्णिवड्डि-हाणी जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्तवं एग० । एवं ओघभंगो पंचिंदिय-तस०२- कायजोगि पुरिस० - कोधादि ०४ श्रभि० सुद० - ओधि० - चक्खु ० -अचक्खु ० अधिदं० - सुक्कले ० - भवसि ० - सम्मादि ० - खड्ग ० - उवसम० - सण्णि आहारग ति । मणुसतिण्णि- पंचमण० - पंचवचि० - ओरालिय० ओघं । णवरि असंर्खेज्जगुणवड्डी बे समयं लभदि । एगसमयं भवदि । मणपजत्रसंजद - सामाइ ०-छेदोवट्ठावण० मणुसभंगो । ८८०. अवगदवेदे पंचणा० - चदुदंस ० चदुसंज० सव्वत्थ संखज्जभागवड्डि-हाणी संखेज्जगुणवड्डि-हाणी अवत्त० एग० । अवट्टिदं ओघं । सादावे० जस० उच्चा० संखज्जभागड-हाणी संखेज्जगुणवड्डि-हाणि असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी अवत्तव्वं एग० । अवट्ठि० काल ८७६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -- ओघ और आदेश | ओघसे क्षपक प्रकृतियोंके चार वृद्धिवन्ध और तीन हानिबन्धों का कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यबन्धका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थितबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । चारों आयुओं के अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । असंख्यातभागहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अवस्थितबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । इसी प्रकार के समान पश्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचतुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुद्धलेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। मनुष्यत्रिक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी और औदारिक काययोगी जीवों में के समान काल है । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओंमें असंख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल उपलब्ध नहीं होता; किन्तु जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । मन:पर्ययज्ञानी, संयत सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग I ८८०. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और चार संज्वलनकी सर्वत्र संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थित बन्धका काल ओघ के समान है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल १ मूलप्रतौ चत्तारितिष्णिवट्टिहाणि इति पाठः । १ मूलप्रतौ गुणवडिहाणि० इति पाठः । ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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