Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 416
________________ पदणिक्खेवे अप्पाबहुगं सामित्तं साधेदव्वं । एवं सामित्तं समत्तं । अप्पाबहगं ८४८. अप्पाबहुगं दुविधं-जहण्णयं उक्कस्सयं च । उकस्सए पगदं । दुविधं-ओषे० आदे० ओ० पंचणा०-णवदंसणा०-दोवेदणी० मिच्छ० सोलसक०-णस०-चदुणोक०-भयदु०-तिरिक्खग०-एइंदि०-ओरालि०-तेजाक० हुंडसं०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४. आदाउजो०-थावर-बादर-पजत्त-पत्तेय०-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादें-जस०-अजस०. णिमि०-णीचा०-पंचंत० सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी । उक्क० अवट्ठाणं विसे० । उक० हाणी विसे । आहारदुगं सव्वत्थोवा उक्क. हाणी अवट्ठाणं च । वड्डी संखेंजगु० । तित्थय० सव्वत्थोवा उक० हाणी अवट्ठाणं च । उ० वड्डी संखेंजगु०। सेसाणं सम्वत्थोवा उक० वड्डी। हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसे० । एवं ओघभंगो कायजोगि-कोधादि०४मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खुदं०-भवसि०-अब्मवसि०-मिच्छादि०-आहारग ति । ___८४६. अवगदवे-सुहुमसंप० सव्वाणं सव्वत्थोवा उक्क० हाणी अवठ्ठाणं च दो वि तुल्ला। उक्क० वड्डी संखेंजगु० । आभि०-सुद०-ओधि०-मणपजव-संजद-सामाइ.. छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-ओधिदं०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम-सम्मामि० सम्भव हो,ध्यानमें रखकर जघन्योत्कृष्ट स्वामित्व साध लेना चाहिए। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। ___ अल्पबहुत्व ८४८. अल्पवहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, चार नोकषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, आतप, उद्योत, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। आहारकद्विककी उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है । तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है । इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ४६. अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धि संयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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