Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 419
________________ ४०६ महाबधे द्विदिबंधांहियारे तित्थय ० - पंचत० अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि अवडिद० । सादादीणं मिच्छत्तस्स च सव्व पगदी अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि० अवत्तव्वयं ० । ८५६. वेउव्वि० देवोघं । वेउव्त्रियमि० पंचणा० णवदंसणा० - सोलसक० भय-दु०ओरालि०-तेजा० क० वण्ण०४- अगु०४- बादर - पजत्त- पत्तेय० - णिमि० - तित्थय० - पंचंत ० अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि० । सेसाणं० तिण्णिवड्डि- हाणि-अवट्ठिद-श्रवत्तव्यबंधगा य । ८५७, आहार०-आहारमि० धुविगाणं अत्थि तिण्णिवड्ढि हाणि अवट्ठिदबं० । सेसाणं अस्थि तिण्णवड्डि-हाणि अवट्ठिद अवत्तव्ववं । कम्मर० धुविगाणं देवगदि ०४ - तित्थय ० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवट्ठि ०बं० | सेसाणं अत्थि तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठिद अवत्त ० । O ८५८. इत्थि - पुरिस - सगेसु अट्ठारसणं अस्थि चत्तारिखड्डि-हाणि-अवट्ठिदबं० । सादावे ० - पुरिस० - जस० उच्चा० अत्थि चत्तारिखड्डि- हाणि अवट्ठि ० - अवत्त० । सेसाणं तिणिर्वाड्ड- हाणि अव०ि -अवत्त० । अवगदवे० पंचणा० चदुदंसणा ० पंचत० अत्थि संखेज भागवड्डि-हाणि-संखेजगुणवड्डि-हाणि अवट्ठि ० - अवत्त० । सादावे० - जसगि० उच्चा० अत्थि संखेजभागवड्डिहा०- संखेज्जगुणवड्डि- हाणि असंखेज्जगुणवड्ढि - हाणि अवट्ठि ० - अवत्त ० । ङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पांच अन्तराय की तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं । साता आदि और मिध्यात्वसे लेकर सब प्रकृतियां की तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं ॥ ८५६. वैक्रियिककाययोगी जीवों में सामान्य देवोंके समान भङ्ग है । वैक्रियिकमित्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, दारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं । ८५७. आहाककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीनहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। कार्मणकाययोगी जीवोंमें ध्रुष बन्धवाली प्रकृतियाँ, देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं । ५. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें अठारह प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशः कीर्ति, और उच्चगोत्रकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं । अपगतवेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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