Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ ४०२ महाबंधे हिदिबंधाहियारे एइंदियमंगो । सेसाणि णत्थि । ८४५. इत्थि०-पुरिस० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णqसगे तिरिक्खोघं । अवगदवे. सव्वकम्माणजह० वड्डी कस्स० १ अण्णदरस्स उवसमग० परिवद० पढमहिदिबंधादो विदिए हिदिबंधे वट्टमा० तस्स जहणिया वड्डी । जह० हाणी कस्स० १ अण्णद० खवग० सुहुमसंप० दुचरिमादो द्विदिवंधादो चरिमे द्विदिबंधे वट्टमा० तस्स जह• हाणी । तस्सेव से काले जह• अवट्ठाणं । चदुसंज० अवडिदस्स कादव्वं । एवं सुहुमसंप० । [ विभंगे मिरयमंगो] ८४६. आमि०-सुद०-ओधि० मणपज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार-संजदासंजद-ओधिदंस०-सम्मादि०-खइग-वेदगस०-उवसम०-सासण-सम्मामि० णाणावरणादि-सादासाद-आहारदुग-तित्थय० एदे अप्पप्पणो द्विदिबंधेण ओघेण साधेदव्वं । किण्ण-णील-काउ० णिरयोघं । तेउ० सोधम्मभंगो। पम्माए सहस्सारभंगो। सुक्काए णवगेवजमंगो। असण्णि० तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो। एवं जहण्णसामित्तं समत्तं । ८४७. एत्तो जहण्णुक्कस्ससामित्तसाधणटुं जहण्णुकस्समद्धच्छेदादो उकस्ससंकिलिटुं तप्पाओग्गसंकिलिटुं उक्कस्सविसोधि-तप्पाओग्गविसोधीहि जहण्णुक्कस्ससमान भङ्ग हैं। कार्मण काययोगी जीवोंमें अवस्थानका भङ्घ एकेन्द्रियों के समान है। शेष पद नहीं हैं। ४५. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समानभन है। नपुंकसवेदी जीवोंमें समान्य तिर्यच्चोंके समान भंग है। अपगतवेदी जीवोंमें सब कर्मोकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है जो गिरनेवाला अन्यतर उपशामक प्रथम स्थितिबन्धसे आकर द्वितीय स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर क्षपक सूक्ष्म-साम्परायिक जीव द्विचरम स्थितिबन्धसे अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित है,वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा वही तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । चार संज्वलनका भंग अवस्थितके कहना चाहिए। इसी प्रकार सूक्ष्म साम्परायिक संयत जीवोंके जानना चाहिए। विभंगज्ञानी जीवोंमें नारकियोंके समान भंग है। ८४६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ज्ञानावरणादि, सातावेदनीय, असातावेदनीय, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इन प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धिबन्ध आदिका स्वामित्व अपने-अपने स्थिनिबन्धको ध्यानमें रखकर ओघके अनुसार साध लेना चाहिए। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। पीतलेश्यावाले जीवोंमें सौधर्म कल्पके समान भङ्ग है। पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सहस्रार कल्पके समान भङ्ग है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें नौग्रैवेयकके देवोंके समान भङ्ग है। असंज्ञी जीवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। ४७. इसके आगे जघन्योत्कृष्ट स्वामित्वकी सिद्धि करनेके लिए जघन्य उत्कृष्ट अद्धाच्छेदके अनुसार उत्कृष्ट संक्लिष्ट, तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट, उत्कृष्ट विशुद्धि और तत्प्रायोग्य विशुद्धिको जहाँ जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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