Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 402
________________ भुजगारबंधे अप्पाबहुअाणुगमो ३८६ अवत्त० । भुज अप्पद० संखेंज० । अवढि० असंखेंज० । दोवचि० तसपज्जत्तभंगो। णवरि भुजगार-अप्पदरं समं कादव्वं । ८१६. कायजोगि० ओघं । ओरालिय. तिरिक्खोघं । णवरि भुज-अप्पद० सरिसं० । णवरि तित्थय० मणुसिभंगो । ओरालियमि० धुविगाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। एइंदि० आदाव-थावर-सुहुम-साधार० सव्वत्थो० अवत्त । भुज० संखेंज्ज० । अप्पद० विसे । अवढि० असंखें । मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० ओघं० । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि देवगदि०४ सव्वत्थोवा भुजः । अप्पद०-अववि० संखेज्जः । एवं तित्थय० । अवत्त० णत्थि। ८१७. वेउवि०-वेउव्वियमिस्स० देवोघं । णवरि थीणगिद्धि०३-अणंताणुबंधि०४ अवत्त० णत्थि । आहार-आहारमि० सव्वट्ठभंगो। कम्मइ० ओरालियमिस्सभंगो। णवरि अत्थदो विसेसो०। ८१८. इत्थिवे० धुवि० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचदंस-मिच्छ०-चारसक०-भयदुगुं०-तेजा०क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि० सव्वत्थोवा अवत्त०-भुज० । अप्पद० पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दो वचनयोगी जीवोंका भंग त्रस पर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें भजगार और अल्पतरपदकी मुख्यतासे अल्पबहत्व एक समान कहना चाहिए। १६. काययोगी जीवोंमें अल्पबहुत्व ओघके समान है। औदारिक काययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्योंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगार और अल्पतर पदकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व एक समान कहना चाहिए। उसमें भी इतनी विशेषता और है कि तीर्थंकर प्रकृतिका भंग मनुष्यिनियोंके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। एकेन्द्रिय जाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार पदके, बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कके भुजगार पदके बन्धक जीव सबके स्तोक हैं । इनसे अल्पतर और अवस्थित पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार तीर्थंकर प्रकृतिकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसका प्रवक्तव्य पद नहीं है। ८१७. वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अल्पबहुत्व सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धी चारका प्रवक्तव्य पद नहीं है । आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके देवोंके समान अल्पबहुत्व त्व है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान अल्पबहत्त्व है। इतनी विशेषता है कि इस विषयमें वस्तुतः जो विशेषता हो वह जान लेनी चाहिये। १८. स्त्रीवेदी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके अवक्तव्य और भुजगार पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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