Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 363
________________ ૫૦ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे देसू० । तिरिक्खायु- मणुसायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । देवायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक० अट्ठावण्णं पलिदो० पुव्वकोडिपुधत्तेणन्भहियाणि । वेउव्वियछ०–तिण्णिजादि- सुहुम- अपजत्त - साधार० तिष्णि पदा० जह० एग०, उक्क० पणवण्णं पलिदो ० सादिरे । एवं अवत्त० । णवरि जह० अंतो० । मणुसगदिपंचग० तिण्णि पदा० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० दे० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० देसू० । णवरि ओरालि० अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० सादि० । आहारदुग० तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० सगट्ठिदी ० । एवं अवत्त० । णवरि जह० अंतो० । पर० - उस्सा ० - बादर - पज्जत्त पत्तेय० तिष्णि पदा० जह० उक० तो ० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० सादि० । तित्थय ० भुज ०- अप्प ० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त० णत्थि अंतरं । ०४ ७४६. पुरिसवे० अट्ठारसण्णं इत्थिभंगो | थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि तिष्णिपदा० जह० एग०, उक्क० बेछावडि० देसू० । अवत० जह० अंतो०, उक्क० सगट्टिदी० । णिद्दा- पचला-भय-दुगुंछ- तेजइगादिणव तिष्णि पदा ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० कायद्विदी० । अट्ठक० ओघं । णवरि अवत्त० जह० अंतो ० ; उक्क० काय एक पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्यपृथक्त्व प्रमाण है । देवायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक अट्ठावन पल्य है। वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचवन पल्य है। इसी प्रकार अवक्तव्य पदका अन्तरकाल है । इतनी विशेषता है कि उसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगतिपञ्चकके तीन पदोंक। जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है । इतनी विशेषता है कि औदारिक शरीरके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचवन पल्य है । आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थिति प्रमाण है । इसी प्रकार अवक्तव्य पदका अन्तरकाल है । इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके तीन पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचवन पल्य है। तीर्थंकर प्रकृति के भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । ७४६. पुरुषवेदी जीवोंमें अठारह प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थिति प्रमाण है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजस शरीर आदि नौ प्रकृतियों के तीन पदोंका भङ्ग श्रोध के समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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