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जहण सत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा
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दुस्सर णादे० सिया० । तं तु० । जस० सिया० असंखेज्जगु० । एवं दुभगदुस्सरणादें |
३१६. सुहुम० ज० द्वि०बं० तिरिक्खगदि-ओरालि० - तेजा० - क० -- वरण०४तिरिक्खाणु० गु०४ - पज्जत्त- पत्ते ० - अजस ० - णिमि० शि० बं० संखेज्जगु० । एइंदि०हुड० - थावर - दूभग प्रणादे णि० बं० संखेज्जभा० । थिराथिर - सुभासुभ० सिया० संखेज्जगु० । एवं साधारणं ।
३१७. अपज्जत्त० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० - ओरालि० - तेजा० क० --ओरालि० अंगो० - वरण ०४ - गु० - उप०-तस बादर-पने ० अथिर असुभ जस० - रिणमि० पि० बं० संखेज्जगु० । दोगदि-दोत्रा ० सिया० संखेज्जगु० णादे० णि० ० संखेज्जदिभाग० ।
हुंड० - असंपत्त० - दूर्भाग
श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय श्रधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातव भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
३१६. सूक्ष्मकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, यशःकीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, स्थावर, दुर्भग और नादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार साधारण प्रकृतिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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३१७. अपर्याप्तकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, वादर, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियम से जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दोगति और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हुण्डसंस्थान, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, दुभंग और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
१. मूलप्रतौ पंचिंदि तेजाक० श्रोरालि० इति पाठः ।
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