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भागाभागपरूवणा
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आहार-प्रणाहारग त्ति । रणवरि ओरालियमि०-कम्मइ०-अणाहार० देवगदिपंचगस्स आहारसरीरभंगो। सेसाणं णिरयादि याव सएिण त्ति ए असंखेज्जजीविगा तेसिं तित्थयरभंगो। एवं ए संखेजजीविगा तेसिं आहारसरीरभंगो। एइंदिय-वरणप्फदि-णियोदाणं तिरिक्वायु० ओघं । सेसाणं पगदीणं मणुसअपज्जत्तभंगो।
एवं उक्कस्सभागाभागं समतं । ४५०. जहण्णए पगदं। दुवि --अोघे० आदे। अोघे० खवगपगदीणं तिरिक्वगदि-तिरिक्वाणु०-उज्जो०-णीचा० ज०हिवं. सव्व० केव? अणंतत्रो भागो। अज ट्ठि०७० सव्व. केव० ? 'अणंता भा० । आहार०--आहार०अंगो उक्कस्सभंगो। सेसाणं पगदीणं जहिवं. सव्व० केव० ? असंखेज्जदिभागो। अज०टिबं सव्व केव० ? असंखेज्जा भागा। एवं अोघभंगो कायजोगि०--ओरालियका--- णवुस०-कोधादि०४-अचखुदं०-भवसिद्धि०-पाहारग ति ।
४५१. तिरिक्खेसु तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु०--उज्जो०-णीचा ओघ । सेसाणं पगदीणं देवगदिभंगो। एवं तिरिक्खोघभंगो एइंदि०--ओरालियमि०--कम्मइ०-मदि०
भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगति पञ्चकका भङ्ग आहारक शरीरके समान है। शेष नरकगतिसे लेकर संशी मार्गणा तक जिन मार्गणाओं में जो असंख्यात जीव राशियाँ हैं, उनका भङ्ग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान है। तथा इसी प्रकार जो संख्यात जीव-राशियाँ है, उनका भङ्ग आहारक शरीरके समान है। एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके तिर्यञ्चायुका भङ्ग अोधके समान है तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है।
इस प्रकार उत्कृष्ट भागाभाग समाप्त हुआ। ४५०. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-अोघ और आदेश। ओघसे क्षपक प्रकृतियाँ, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं? अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं । आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। इस प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
४५१. तिर्यञ्चोंमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भंग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भंग देवगतिके समान है। इस प्रकार सामान्य
१. मूलप्रतौ -गदीणं तिरिक्खगदीणं तिरिक्ख-इति पाठः । २, मूलप्रतौ अणंतभा० इति पाठः ।
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