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परत्थाद्विदिप्पा बहुग परूवणा
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उ० हि० विसे । यद्वि० विसे० । जसगि० उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । मणु सग० उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । सादा०-हस्स - रदि० उक्क० वि० विसे० । यहि विसे० | पंचणोक० - तिरिक्खगदि - तिरिणसरीर -- जस०-- खीचा० उक्क० वि० विसे० । यहि० विसे० | पंचरणा० - रणवदंसणा०-- असादा० - पंचंत० उ० हि० विसे० | यहि० विसे० । सोलसक० उ०वि० विसे० । यट्टि० विसे० । एवं सव्वपज्जत्तगाणं सव्व एइंदिय सव्वविगलिंदिय---पंचकायाणं च । एवरि सव्व एइंदिय - विगलिंदिय० णीचागोदादो सादावे० उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । पच्छा सारणावरणीयं भाणिदव्वं ।
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६४३. मणुसेसु० ३ ओघं । वरि तिरिक्खगदि--ओरालि० तिरिक्खभंगो । देवे या सहस्सार ति रइगभंगो । आपद याव एवगेवज्जा त्ति सव्वत्थोवा मसा० उ०हि० । यहि० विसे० । पुरिस० - हस्स - रदि - जसगि०- उच्चा० उ०हि० असंखेज्ज० । यट्टि० विसे० । सादावे० - इत्थि० उ०हि० विसे० । यहि० विसे० । पंचपोक० ६० मणुसग० - तिरिणसरीर जस० णीचा० उ०हि० विसे० । यद्वि० विसे० उवरि रइगभंगो ।
गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यशःकीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीय, हास्य और रतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, तिर्यञ्चगति, तीन शरीर, यशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार सव अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सब एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में नीचगोत्र से सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। तथा इसके बाद ज्ञानावरणदिक कहने चाहिए ।
६४३. मनुष्यत्रिमें घके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति और दारिक शरीरका भङ्ग तिर्यञ्चोंके समान है। देवों में सहस्रार कल्पतक नारकियों के समान भङ्ग है । यानत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय और स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, मनुष्यगति, तीन यशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे श्रागेका भङ्ग नारकियोंके समान है ।
शरीर
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