Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 334
________________ परत्थाणहिदिअप्पाबहुगपरूवणा ३२१ यट्ठि० विसे० । पुरिस० ज०ट्ठि० संखेज० । यढि० विसे० । देवायु० ज०ट्ठि. असंखेज्ज । यढि० विसे । हस्स-रदि-भय-दुगुं० ज०द्वि० संखेज्ज । यहि. विसे० । देवगदि-चदुसरी० ज०वि० संखेज्ज० । यहि. विसे । णिहा-पचला. ज.हि. संखज्ज० । यढि० विसे० । अरदि-सोग-अजस० ज०ट्ठि० संखेज्ज० । यढि० विसे । असादा० ज०ढि० विसे० । यढि० विसे० । पच्चक्खाणा०४ जट्ठि० संखज्ज। यढि० विसे० । अपचक्खाणा०४ ज०द्वि० संखेज्ज०। यढि० विसे । मणुसग० ओरालि० ज०द्वि० संखेज्ज० । यढि० विसे० । थीणगिद्धितिग० ज०वि० संखेज्ज। यट्ठि० विसे० । अणंताणुबंधि०४ जट्ठि. विसे । यढि० विसे० । मिच्छ० ज० ढि० विसे० । यढि० विसे । इत्थि० ज०वि० संखेज्जः । यढि० विसे० । णस० जट्टि० विसे० । यट्टि विसे० । णीचा० ज० ढि० विसे । यहि विसे । ६८९. वेदगसम्मा० सम्वत्थो० मणुसायु० ज०वि० । यहि विसे० । देवायु० जट्ठि० असंखेज्जः । यहि. विसे० । पंचणोक०-देवगदि-चदुसरीर-जस०-उच्चा० ज०द्वि० संखज० । यढि० विसे० । पंचणा०-छदसणा०-सादा०-पंचंत० ज०वि० [विसे०] विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति, भय और जगप्साका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगणा है इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और चार शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशः कीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे असाता वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यरिस्थतिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगति और औदारिक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात. गुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ६८६. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, देवगति, चार शरीर, यश कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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