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महाबंध द्विदिबंधाहियारे
६३४. सुकाए सव्वत्थोवा मासायु० जह० । यहि० विसे० | देवायुज० द्वि० असंखज्ज० । यहि विसे० । सव्वत्थोवा देवग० ज०हि० । यद्वि० विसे० । मणुसग० ज० वि० संखेज्जगु । यद्वि० विसे० । सेसं ओघं ।
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६३५. सासणे सव्वत्थोवा सादावे० ज० द्वि० । यहि० विसे० । श्रसादा० ज० द्वि० विसे० । यहि विसे० । सव्वत्थोवा तिरिणगदि० ज० हि० । यहि० विसे० । एवं धुविगाणं । सेसाणं सादा० भंगो ।
६३६. सम्मामि० सव्वत्थोवा सादा० ज०हि० । यहि० विसे० । श्रसादा० ज० वि० संखेज | यहि० विसे । एवं पश्यित्तमाणियाणं । सव्वत्थोवा पुरिस०हस्स-रदि-भय-दुगु ज० हि० । यहि० विसे० । बारसक० ज० वि० विसे० । यहि० विसे० । अरदि-- सोग० ज० हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । सेसाणं सव्वत्थोवा ज० हि० । यद्वि० विसे० ।
६३७. सरिण मणुसभंगो । असरिण० तिरिक्खोघं । एवं जहणणयं समत्तं
एवं सत्थाद्विदिप्पाबहुगं समत्तं
६३४. शुल्कलेश्यावाले जीवोंमें मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्य गतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ समान है ।
६३५. सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। तीन गतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीय के समान है ।
६३६. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार परावर्तमान प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे बारह कपायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति और शोकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
६३७. संशियों में मनुष्यों के समान भङ्ग है । तथा असंज्ञियों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है ।
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इस प्रकार जघन्य अपबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार स्वस्थान स्थिति अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
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