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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे संखेजगु० । किरण-णील० मणुसो सत्थाणे विसुज्झमाणो तित्थयरस्स असंजदसामित्तण असंजदभंगो । काऊए तित्थय णिरयोघं ।
४२७. तेऊए आभिणिबो० ज०हिबं० चदुणा०--छदसणा०-सादा०-चदुसंज-पंचणोक--देवगदि--पसत्थहावीस--उच्चा०-पंचंत णि । तं तु० । आहारदुगं तित्थयरं सिया० । तं तु । एवमेदारो एक्कमेक्कस्स । तं० तु.।
४२८, दंसणतिय-असादा-मिच्छ०-बारसक०-अरदि-सोग० मणजोगिभंगो । इत्थिवे. जहि०० पंचणा-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-पंचिंदि०-तेजा०क०-वएण०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग--सुस्सर-आदें-उच्चा०-पंचंत. णि. बं० संखेजगु० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-दोआणु० सिया० संखेज्जगु० । सादा
प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध होता है। तथा देवगति संयुक्त प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। कृष्ण और नील लेश्यामें मनुष्य स्वस्थानमें विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ तीर्थकर प्रकृतिका बन्धक होता है। जिसके असंयत स्वामित्वकी अपेक्षा असंयतके समान भङ्ग है । कापोत लेश्याम तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है।
४२७. पीतलेश्यावाले जीवों में अभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी
अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
४२८. तीन दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कषाय, अरति और शोक इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष मनोयोगी जीवोंके समान है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और दो श्रानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे
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