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महाबंधे दिबंधाहियारे
मसाणु ० । वरि ओरालि० ओरालि ० अंगो० - वज्जरिस० - दोगदि- दोश्राणु० - उज्जो ०
सिया० । तं तु० ।
पंचिदि० - सादि-पसत्थद्वावीसं
३२६. देवगदि० ज० द्वि० बं० तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० । सत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें • मणजोगिभंगो।
लिय० । चदुजादि -- पंचसंठा०--पंच संघ० -- अप्पवरि जसगि० ज० संर्खेज्जगुणग्भ० । ३३०. आभिणि० - सुद० अधि० मण० भंगो । रावरि मिच्छत्तपगदि वज्ज । मणुसगदि० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० - तेजा० क० -- समचदु० - वराण ०४ - अगु०४ - पसत्थ०तस०४-थिरादिपंच-णिमि० णि० वं० संखेज्जगुणन्भ० । ओरालि० ओरालि० अंगो०वज्जरि०- मसाणु ० णि० बं० । तं तु० । जस० रिण० बं० श्रसंखेज्जगु० । तित्थय ०
अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है ।
३२६. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, स्वातिसंस्थान प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातव भाग अधिक तक स्थितिका बन्ध होता है । इसीप्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातव भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन,
प्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यशःकोर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है ।
३३०. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंका भङ्ग मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व प्रकृतिको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । औदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे श्रजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक
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