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जहणपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
१८३ असंखेजगु० । असादा०--चदुणोक-थिराथिर--सुभासुभ-अज-उज्जो० सिया० संखेंज्जगु० । एवुस हुंड०--दूभग-अणादें णि बं० संखेजभा० । एवं बीइं०तीइं०-चदुरिं- हेहा उवरिं एइंदियभंगो । णाम सत्थाणभंगो ।
३६४. रणग्गोद० ज०हि०व० खविगाणं ओघं । सेसाणं इत्थिवेदभंगो । णाम० सत्थाणभंगो । सव्वाणं संघड०--अप्पसत्थ० --दूभग-दुस्सर-अणादेजाणं हेढा उवरिं इत्थिवेदभंगो। णवरि किं चि विसेसो जाणिदव्यो। वेदेसु णाम अप्पप्पणो सत्थाणभंगो।
३६५. वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगि० तसपज्जत्तभंगो। कायजोगि-अोरालियकायजोगि० ओघं । ओरालियमिस्से तिरिक्खोघं । णवरि देवगदि० ज०हिबं. पंचणा-छदंसणा--सादावे-बारसक पंचणोक--पंचिंदि-तेजा०-क-समचदु०वएण०४-अगु०४-पसत्थ०--तस०४-धिरादिछ--णिमि०--उच्चा०-पंचंत० णि. बं. संखेज्जगु० । वेउबि-वउव्वि अंगो०--देवाणु० णि बं० । तं तु । तित्थय० यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशाकीर्ति और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, दुर्भग और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँभाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसीप्रकार द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रिय जातिके समान है। तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है।
३९४. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानको जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। सब संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर
अनादेय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि कुछ विशेष जानना चाहिए। तीन वेदों में नामकर्मकी अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है।
३९५. वचनयोगी और असत्यमृपावचनयोगी जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग त्रस पर्याप्तकोंके समान है। काययोगो और औदारिक काययोगी जीवों में ओघके समान है।
औदारिक मिश्र काययोगमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिकी जघन्य स्थितिका वन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कपाय, पाँच नोकपाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अघिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ
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