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जहण्णपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
१८७ पगदी यम्हि संखेज्जगुणन्भहियं तम्हि संखेज्जभागभहियं कादव्वं । सम्मत्तपगदीओ संखेज्जगुणब्भहियाओ।
४००. आहार०--आहारमिस्स आभिणिबोधि० जहि बं० चदुणा०-छदं-- सणा०-सादा०-चदुसंज-पंचपोक०-देवगदि-पसत्थहावीस-उच्चा०-पंचंत णि० बं० । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । [तं तु.] ।
४०१. असादा० ज०हिबं० पंचणा०.छदसणा०-चदुसंज०-पुरिस-भय-दु. देवगदि-पसत्थपणवीस-उच्चा-पंचंत णि० संखेज्जभाग । हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस०तित्थय० सिया० संखेज्जभाग० । अरदि-सोग--अथिर-असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । एवं अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० । इसी प्रकार वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें अपनी प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियाँ जहाँपर संख्यातगुणी अधिक कही हैं वहाँ पर संख्यातवां भाग अधिक कहनी चाहिए और सम्यक्त्व सम्बन्धी प्रकृतियाँ संख्यातगुणी अधिक कहनी चाहिए ।
४००. आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोगमें आभिनिबोधिक शानावरण की जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार शानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है।
४०१. असातावेदनीयको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि पच्चीस प्रशस्त प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यश-कीर्ति और तीर्थकर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्ति इनका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर,
अशुभ और अयश कीर्तिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International
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