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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ३७३. असादा० ज०हि वं. पंचणाणा. मणुसगदिसंजुत्ताओ णिरयोघं । णवरि सम्मादिहिपगदीओ बंधदि । एवं अरदि-सो०-अथिर-असुभ-अजस ।
३७४. इस्थिवे. जहि बं० पंचणा--णवदंसणा--मिच्छ०-सोलसक--भयदु०-णाम मणुसगदिसंजुत्ताओ उच्चा०-पंचंत० णि बं० संखेज्जगु० । सादासाद०चदुणोक-समचदु०-वज्जरिस०-थिरादितिएिणयुगलं सिया० संखेज्जगु० । दोसंठा०दोसंघ• सिया० संखेज्जभा० । एवं गर्बुस । एवरि चदुसंठा०-चदुसंघ० सिया० संखेज्जभा० । आयु. णिरयोघभंगो।
३७५. तिरिक्खग० जहि०० हेहा उवरि एवुसगभंगो। णामसत्थाणभंगो। एवं पंचसंठा--पंचसंघ--अप्पसत्थवि०-द्भग-दुस्सर-अणादे हेहा उवरि । णामं अप्पप्पणो सत्थाणभंगो। एवं चदुसु पुढवीसु । सत्तमाए पुढवीए एसो चेव भंगो। गवरि णिहाणिदाए ज हि०० पचलापचला-थीणगिद्धि-मिच्छ ०-अणंताणुबंधि०४भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।।
३७३. असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके पाँच ज्ञानावरण आदि मनुष्यगति संयुक्त प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यह सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी प्रकृतियोंको बाँधता है। इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३७४. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, नामकर्मकी मनुष्यगति संयुक्त प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र
और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, समचतुरस्नसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, स्थिर आदि तीन युगल इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दो संस्थान और दो संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवां भाग अधिक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि चार संस्थान और चार संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। आयुकर्मकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके समान है।
३७५. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी मख्यतासे नीचे ऊपरकी अपनी-अपनी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा नामकर्मकी अपनी अपनी प्रकृतियोंका भंग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार तीसरी आदि चार पृथिवियोंमें जानना चाहिए। सातवीं पृथ्वीमें यही भंग है। इतनी विशेषता है कि निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व,
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