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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
३७७. मणुसगदि० ज० हि० बं० ओरालि० ओरालि० अंगो० वज्ज० - मणुसारणु० ०ि बं० । तं तु० । पुरिस० उच्चा० णि० बं० संखेज्जभा० । एवं सव्वाणं धुविगाणं | सादासाद० चदुणोक० थिरादितिरिणयुगलं सिया० संखेज्जभाग० । एवं तं तु पदिदारणं । इत्थिवे ० -- वंस० - तिरिक्खग०-- पंचसंठा०--पंच संघ० - अप्पसत्थ०दूर्भाग- दुस्सर अणादे० हेडा उवरिं मणुसगदिभंगो । वरि वेदविसेसा जाणिदव्वा । णाम० सत्याणभंगो । वरि इत्थिवे० मणुसगदि -- देवगदिसंजुत्तं कादव्वं । चदुत्रायु०
धं । वरि धुवियाओ ताओ रिण० वं० विद्वाणपदिदं वंधदि संखेज्जभा० संखेज्जगु० । परियत्तमाणियाओ सिया० विद्वाणपदिदं बंधदि संखेज्जभा० संखेज्जगु० । रियगदि-चदुजादि - गिरयाणु० -- श्रादाव - थावरादि ०४ तिरिक्खोघं । वरि संखेज्जभा० | पंचिंदियतिरिक्खापज्जत्ता ० रियोवं । एवरि दोआयु० जोणिभिंगो ।
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अजघन्य
३७७. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्रगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है यदि जघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद और उच्चगोत्रका नियमसे बन्धक होता है जो नियम से संख्यातवां भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार सब ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों का जानना चाहिए। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगल इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार "तं तु" रूपसे पठित प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्नि कर्ष जानना चाहिए । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और श्रनादेय इनका नीचे ऊपर मनुष्यगतिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि वेद विशेष जानना चाहिए। नामकर्मकी प्रकृतियों का भङ्ग स्वस्थानके समान है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदको मनुष्यगति और देवगति सहित कहना चाहिए । चार आयुओं का भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि जो ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं उनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य दो स्थान पतित स्थितिका बन्धक होता है या तो संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । परावर्तमान प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य दो स्थान पतित स्थितिका बन्धक होता है । या तो संख्यातवां भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगति, चार जाति, नरकगस्यानुपूर्वी, श्रातप और स्थावर आदि चार इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य तिर्यञ्चोके समान जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातवाँ भाग अधिक करना चाहिए । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि दो श्रायुओं का भङ्ग योनिमती तिर्यञ्चोके समान 1
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