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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अगु०४- पसत्थवि०--तस०४- सुभग-सुस्सर-आदे०--णिमि उच्चा०-पंचंत० णि० बं० संखेज्जभागब्भहियं० । सादासाद०--हस्स-रदि-अरदि-सोग--तिएिणसंठा-तिषणिसंघ०--थिराथिर-सुभासुभ-जस०--अजस० सिया० संखेंज्जभा० । एवं णवुस । णवरि पंचसंठा-पंचसंघ ।
३६८. तिरिक्वायु० जाहि०० पंचणाणावरणादिधुविगाणं णि वं. संखेज्जगु० । सेसाओ परियत्तमाणियाओ सव्वाअो सिया० संखेज्जगु० । एवं मणुसायु. । णवरि णीचुच्चा० सिया० संखेज्जगु०।
३६६. तिरिक्खग० जहि बं० पंचणा०-णवदंसणा०--मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णि बं० संखेज्जभा०। सादासाद०-तिएिणवे०-हस्सरदि-अरदि-सोग सिया० संखेज्जभाग० । णाम सत्थाणभंगो। पंचसंठा-पंचसंघअप्पसत्थ-भग-दुस्सर-अणादें ओघं । सगपगदीश्रो संखेज्जभाग० । णवरि उच्चा० धुविगाणं कादव्वं । णामस्स अप्पप्पणो सत्थाणभंगो। पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक, होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, तीन संस्थान, तीन संहनन, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयशः कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँच संस्थान और पाँच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है।
३६८. तिर्यञ्चायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण आदि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शेष परावर्तमान सब प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है
और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नीचगोत्र और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है।
३६९. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तीन वेद, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थानके समान है । पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। किन्तु अपनी प्रकृतियोंकी स्थितिको संख्यातवों भाग अधिक कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रको ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके साथ कहना चाहिए । तथा नामकर्मकी अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। For Private & Personal Use Only
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