________________
१५०
महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ३१८. अथिर० जहि बं० देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा०--क-समचदु०वेउवि अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि०--तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०णिमि० णि० बं० संखेज । सुभ-तित्थय० सिया० संखेजगु० । असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । जस० सिया० असंखेजगु० । एसिं जसगित्ती भणिदा तेसिं असंखेज्जगुणं कादव्वं । एवं असुभ-अजसगित्ती।
३१६. वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु तसपज्जत्तभंगो। कायजोगि-अोरालि यकायजोगी. अोघं । ओरालियमिस्से एइंदियभंगो। गवरि देवगदि जट्टि बं० पंचिंदि०-तेजा-क०--समचदु०-वएण०४--अगु०४-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछणिमि. मि. संखेज्जगुण । वेउवि०-वेउवि अंगो०-देवाणु० णिय. बं० । तं तु । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवं वेउवि०-वेउवि अंगो०देवाणु -तिस्थय ।
mar
३१८. अस्थिरकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय
और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शुभ और तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ और अयश-कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यशाकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। जिनके यशःकीर्ति प्रकृति कही है उनके असंख्यातगुणी कहनी चाहिए। इसी प्रकार अशुभ और अयशाकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३१९. वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवोंमें सपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । काययोगी और औदारिक काययोगी जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थिति का बन्धक होता है। तीर्थंकरका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org