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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
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भंगो। एवं वेडव्वि ० -वेउव्वि ० अंगो ० -देवाणु० । तिणिसंठा०-- तिरिणसंघ० ओघं ।
२२८. सम्मामि० वेदग०भंगो | मिच्छा दिहि त्ति मदि० भंगो । सरिण० श्रघं । eerut भिबोधि० उ०ट्ठि०बं० यथा तिरिक्खोघं पढमदंडो तथा दव्वा । सादावे० - इत्थवे ०-हस्स -रदि- अरदि० पंचिदियतिरिक्त पज्जत्तभंगो |
२२६. पुरिस० उ० द्वि०बं० पंचरणा०- रणवदंसणा ० - मिच्छ० - सोलसक०-भयदुगु० -- पंचिंदि० --तेजा० - क० - वरण ०४ - गु०४-- तस४ - णिमि० -- पंचंत० शि० बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद० - हस्स-रदि-अरदि-सोग दोगदि - ओरालि० - पंचसंठा०ओरालि० अंगो०-पंच संघ० - दोआणु ० उज्जो ० - अप्पसत्थ० - थिराथिर - सुभासुभ-जस०अजस०-णीचा० सिया० संखेज्जदिभागू० । देवगदि-समचदु० वज्जरिस०-देवाणु ०पसत्थ० - सुभग-सुस्सर-आदे० उच्चा० सिया० । तं तु० । वेउव्वि० [ वेडव्वि ० ]अंगो ० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं पुरिसभंगो समचदु० - वज्जरिसभ ०-पसत्थ० सुभग-सुस्सरहोता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार वैकियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीन संस्थान और तीन संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष के समान है ।
२२८. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग वेदक सम्यग्दृष्टियोंके समान है । मिथ्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानियोंके समान है। संक्षी जीवों में ओघके समान है । संत्री जीवों में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवके जिस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चों के प्रथम दण्डक कहा है, उस प्रकार जानना चाहिए | साता वेदनीय, स्त्रीवेद, हास्य, रति और अरतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिए ।
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२२६. पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, घचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमले बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, साता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, दो गति, श्रदारिक शरीर, पाँच संस्थान, दारिक आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति, श्रयशः कीर्ति और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातव भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । देवगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्वमनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है | यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातव भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । वैकयिक शरीर और वैकियिक आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभ
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