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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
सुभ-अजस० सिया० असंखेज्जदिभा० । जस० सिया असंखेज्जदिगु० । श्रद्धगारा० सिया० । तं तु ० । एवं श्रद्धणारा० । एवं चेत्र वामणसंठा० । वरि खीलिय० सिया० । तं तु । एवं खीलिय० ।
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२५५. हुंड० जह० हि० बं० पंचिंदि ० - ओरालि ०-तेजा ०. [० क ० - ओरालि ० अंगो०वरण० ४-अगु०४--पसत्थ० -तस०४- सुभग- सुस्सर- दे० - णिमि० णि० बं० । णि० असंखेज्जदिभा० । दोगदि - पंचसंघ० - दोश्राणु० - उज्जो ०--थिराथिर - सुभासुभ-अस० सिया असंखेज्जदिभा० । असंपत्त० सिया० । तं तु० । जस० सिया० असंखेज्जदिगु० | एवं संपत्त० ।
भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि
जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार वामन संस्थान की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार कीलक संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२५५. हुण्ड संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । दो गति, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है | असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य की अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार असम्प्राप्तासृपाटिका संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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